अभिनव आलोक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ईमानदार हैं या बेईमान इसके लिए तो अकाट्य सबूत चाहिए जो किसी के पास नहीं है। मोदी तानाशाह हैं, फासिस्ट हैं, यह आरोप काफी लंबे समय से लगाया जाता रहा है। कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर तो बकायदे इस पर मंथन चल रहा है कि मोदी शासन में क्या भारत फ़ासिज़्म की तरफ जा रहा है या फासिस्ट हो चुका है, अभी वो किसी निर्णायक फैसले पर नहीं पहुंच पाए हैं। तानाशाह, फासिस्ट , टोटलिटेरियन इत्यादि होने के लिए घोटालेबाज होना जरूरी नहीं है। स्टालिन और हिटलर को उदाहरण स्वरूप लिया जा सकता है। इसके ठीक उलट उदाहरण भी मौजूद हैं। मोदी निश्चित ही एक पॉपुलिस्ट लीडर हैं। मोदी ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया पॉपुलिस्ट लीडर्स के उभार को महसूस कर रही है। ट्रंप, एरडोगन, पुतिन, शी जिनपिंग, विक्टर ओरबन जैसे कई राष्ट्रध्यक्ष एक बेहद मजबूत पॉपुलिस्ट राजनेताओं की तरह उभरे हैं, जिनमें तानाशाही प्रवृत्ति को ट्रेस किया जा सकता है। राष्ट्रवाद का उभार भी पूरी दुनिया में महसूस किया जा रहा है। लिबरल डेमोक्रेसी के यूनिवर्सिलिस्ट और एक्टिविस्ट आयाम से दुनिया का मोहभंग हो रहा है।
इंदिरा गाँधी की तानाशाही भी ज़्यादा दिन तक नहीं चली थी
भारत में तानाशाह होना बेहद मुश्किल है। यहां की जाति, भाषा, क्षेत्रीय विषमताएं इत्यादि किसी भी बेहद पॉपुलिस्ट लीडर को विनम्र बनाने के लिए पर्याप्त हैं। जाति जनगणना पर सरकार का विपक्ष के सामने झुकना, भारी विरोध के बाद किसान बिल को वापस लेना इत्यादि से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत में तानाशाही असंभव है। इंदिरा जी की तानाशाही भी ज्यादा दिन तक नहीं चली थी, जनता ने लोकतंत्र के माध्यम से उन्हें सत्ताच्युत कर दिया था। उसी इंदिरा जी को दुबारा जनता ने पुनः अपना नेता बनाया और दिखाया कि जनता भारत में लोकतंत्र को लेकर किंचित भी असुरक्षित नहीं है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोप के देशों ने अंधराष्ट्रवाद के उभार को देखा। कई देशों ने फासिस्ट और तानाशाह रेजीम को भी झेला। यूरोपीय देशों और भारत में बहुत फर्क है, दोनो जगहों के राष्ट्रवाद में जमीन आसमान का फर्क है। यूरोप में भाषाई राष्ट्रवाद है, उनके संप्रदाय भी एक ही किस्म के है, इंग्लैंड में प्रोटेस्टेंट हैं , तो बाकी जगहों पर ज्यादातर कैथोलिक, रूस के तरफ ईस्टर्न ऑर्थोडॉक्स। यूरोप में फासीवाद या तानाशाही या टोटलिटेरियनिज्म आने की संभावना हमेशा प्रबल रहेगी। भारत का राष्ट्रवाद कभी भी फासिस्ट और टोटलिटेरियन टर्न नहीं ले सकता, इसके अंदर बहुत सारे कॉन्ट्रडिक्शंस हैं, भाषा, संप्रदाय, जाति, क्षेत्रीयता, कुछ भी साम्य नहीं है।
भारत के समाज को कोई निरंकुश और तानाशाही शासन निगल नहीं सकता
फ्रेडरिक हेगेल ने इसीलिए सिविलाइजेशनल स्केल पर भारत को चीन से आगे रखा था, उनका मानना था कि भारत की जाति व्यवस्था राज्य और समाज के बीच एक दरार बनाए रखती है और इसीलिए भारत के पूरे समाज को एक साथ कोई निरंकुश और तानाशाही शासन निगल नहीं सकता है जबकि चीन में इसकी हमेशा संभावना रहेगी। फुकुयामा ने हाल ही में हेगेल की इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा है कि जाति व्यवस्था भारत में कुछ हद तक लोकतंत्र की सफलता के लिए जिम्मेदार है। ऐतिहासिक रूप से भी भारत में राज्य बेहद कमजोर और विभाजित रहा है। इसका स्याह पक्ष भी है, इसी विभाजन की वजह से भारत को एक लंबी राजनैतिक और सांस्कृतिक गुलामी झेलनी पड़ी है। इस बात से हमारे संविधान निर्माता परिचित थे इसलिए उन्होंने भारत को एक मजबूत यूनियन ऑफ स्टेट बनाने की कोशिश की, केंद्रीय सत्ता को ज्यादा मजबूत बनाया, इसके बावजूद भारतीय राज्य के अंतर्विरोध हमेशा सत्ता को विकेंद्रित ही रखते आए हैं। मोदी जी को पिनराई विजयन साहब और दूसरे वैचारिक दृष्टि से बिल्कुल अलग प्लेटफॉर्म पर खड़े राजनेताओं के साथ मिल कर ही सत्ता और इसमें निहित शक्ति को शेयर करना होगा। (FB Courtesy)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। सोशल मीडिया में इनका लिखा लोग चाव से पढ़ते हैं ।)
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