शहर से गांव डगर तक की कहानी

शकील अख़्तर

कांग्रेस को, इन्दिरा गांधी को और राजीव गांधी को भी प्रेस की आजादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत घेरा जाता है। मगर आज जब एक लोक गायिका नेहा सिंह राठौड़, एक विश्वविद्यालय शिक्षक डा. मेडूसा पर सवाल पूछने पर एफआईआर दर्ज कर ली जाती हैं और पत्रकार संजय शर्मा के बहुत चलने वाले यू टूयूब चैनल 4 पीएम का प्रसारण रोक दिया जाता है तो वैसी मीडिया में खबरें, जुलूस, प्रदर्शन कहीं दिखाई नहीं देते जैसे इन्दिरा और राजीव के खिलाफ होते थे। हमने लिखा इन्दिरा गांधी के खिलाफ। और तथ्य यह है कि जिसके लिए इन्दिरा गांधी के खिलाफ पत्रकार सड़कों पर उतरे थे वह विधेयक इन्दिरा गांधी लाई ही नहीं थीं। विधेयक बिहार में आया था। और उस समय के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा लाए थे। 1982 में बिहार प्रेस विधेयक के नाम से। लेकिन पूरे देश में इसे प्रेस की आजादी पर हमला बताते हुए प्रदर्शन हुए। नारे इन्दिरा के खिलाफ लगे। और बता दें कि इस समय इन्दिरा गांधी अपने सबसे बड़े बहुमत में थीं। मगर उन्होंने अपने मुख्यमंत्री से कहा और बिल वापस हुआ।

पत्रकार मुंह पर काली पट्टी बांधकर जब सड़कों पर आए

1988 राजीव गांधी मानहानि विधेयक लाए थे। पत्रकार मुंह पर काली पट्टी बांधकर फिर सड़कों पर आए। और संसद से पास विधेयक को राजीव ने वापस लिया। और उस समय राजीव के पास आज तक का सबसे बड़ा बहुमत था। 404 सीटें। जो मोदी जी के लिए एक बड़ी हसरत थी। कहते थे चार सौ पार। मगर कांग्रेस के लिए हकीकत थी। और जिस बिहार प्रेस विधेयक को इन्दिरा ने वापस करवाया उस समय इनके पास 353 सीटें थी। कांग्रेस, इन्दिरा, राजीव और राहुल गांधी को भी हमेशा नकारात्मक छवि से घेरा जाता है। लेकिन संविधान, संवैधानिक संस्थाएं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इन सारे मुद्दों पर कांग्रेस हमेशा जन भावनाओं को समझने और उसके अनुरूप काम करने, खुद को बदलने की कोशिश करती रही। लोग यहां फौरन एक इमरजेन्सी की बात जरूर करेंगे। पचास साल पुरानी बात की। आज की नहीं। बहुत लिखा गया है इस पर। खुद इन्दिरा गांधी ने माफी मांग लो थी। और दूसरी बात जो जरूरी है कि वह संवैधानिक रूप से लगाई गई थी। आज की तरह मनमाने रूप से मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश नहीं। लेकिन आज असहमति का जरा सा भी स्वर बर्दाश्त नहीं। इस पर आगे लिखेंगे। मगर एक बात यहां याद आ गई तो पहले वह लिख दें कि असहमति तो बर्दाश्त है ही नहीं मगर जो वाह वाही में लगे हैं उन पर भी ऐसा दबाव के तारीफ के पुल और बांधों। गोदी मीडिया के एंकर और पत्रकारों में तुलना करने लगे हैं कि वह उपर जा रहा है, वह कमजोर पड़ रहा है। शब्दों की बेचारों की अपनी सीमाएं हैं! कहां तक तारीफ करें। तो फिर विपक्ष के नेताओं के चरित्र हनन में सारी ताकत लगा देते हैं। विपक्ष के नेताओं का अपमान भी उनका सत्ता पक्ष का सम्मान माना जाता है! तो खुद असहमति बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं।

इससे पहले मीडिया को सरकार का ऐसा पक्ष लेते देखा

मीडिया अपने सबसे कठिन दौर में है। क्या कभी इससे पहले मीडिया को सरकार का ऐसा पक्ष लेते देखा था? मजेदार उदाहरण है काले कृषि कानूनों का। प्रधानमंत्री मोदी ने न केवल बिल वापस लिए किसानों से माफी मांगी। मीडिया के लिए यह बहुत धक्का था। वह इन कानूनों के समर्थन में इतना आगे आ गई थी कि किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी, मवाली जाने क्या क्या कहने लगी थी। सोचती थी साहब खुश होगा इनाम देगा। मगर साहब ने बिल ही वापस ले लिए। और बिना शर्त माफी मांग ली। बहुत तकलीफ हुई मीडिया को। मुंह से यहां तक निकल गया कि हमारे साथ धोखा हुआ। लेकिन मजबूरी है। उसे हर हाल में मोदी का समर्थन करना है। वह अपनी निष्पक्षता, निर्भिकता, आम जनता के प्रति जिम्मेदारी भला बुरा सब भूल गई है। एक डर उसके मन में समा गया है कि अगर मोदी की जय जयकार नहीं की तो उसका अस्तित्व नहीं बचेगा। लेकिन सब तो डर के शिकंजे में आए नहीं। जैसा उपर बताया उस समय 1982 में 353 के बहुमत वाली इन्दिरा गांधी के विरोध में सड़कों पर आए। 404 के आज तक नहीं टूटे रिकार्ड वाले राजीव गांधी के खिलाफ 1988 में आए। और एक बात यहां बता दें कि 1974 – 75 के आन्दोलन को जो छात्र युवा उस समय भी राजनीति से प्रेरित मानते थे और उसके पीछे कि इन्दिरा, कांग्रेस विरोध की राजनीति को समझते थे वे जयप्रकाश के आन्दोलन के साथ तो नहीं आए मगर इमरजेन्सी लगने के बाद जेल चले गए अपने साथियों से जेल जाकर मिलते रहे। उनके परिवारों से भी। सैद्धांतिक विरोध था मगर डर नहीं था।

समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव तो सवाल भी लगातार पूछ रहे

अन्ना आन्दोलन की हकीकत भी जैसे आज सामने आ गई है। वह भी एक राजनीतिक आन्दोलन था। झूठ पर आधारित। टू जी मामला खत्म हो गया। कुछ नहीं मिला। विनोद राय अदालत में माफी मांग चुके कि उसमें उन्होंने गलत बयानी की थी। कामनवेल्थ गेम मामले में भी ईडी ने मान लिया कुछ नहीं था। मगर इन्हीं झूठों पर पहले दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार और फिर केन्द्र की मनमोहन सिंह सरकार को हटा दिया गया। ऐसे ही जयप्रकाश का आन्दोलन था। दो साल में ही युवाओं का मोहभंग हो गया। यह सारे घटनाक्रम देश में चलते रहे। अंग्रेजों का राज भी रहा। मगर जैसा डर का आज माहौल बनाया गया है वैसा कभी नहीं रहा। और यह स्थिति तब है जब मोदी जी के पास लोकसभा में खुद का बहुमत भी नहीं है। केवल 240 सीटें हैं। लेकिन जो डर कभी 353 वाली इन्दिरा गांधी, 404 वाले राजीव गांधी ने नहीं बनाया वह आज दूसरी पार्टियों की बैसाखियों पर टिकी मोदी सरकार ने बना दिया। मगर क्या सब डर जाएंगे? नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी तो नहीं डर रहे। उसी हिम्मत के साथ खड़े हैं। इस समय सवाल जरूर नहीं पूछ रहे। क्योंकि बहुत बड़ी त्रासदी हुई है। 26 लोगों को आतंकवादियों ने मारा है। वे उस जगह पहलगाम गए। अस्पताल में घायलों से मिले। समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव तो सवाल भी लगातार पूछ रहे हैं। और पत्रकार संजय शर्मा के यूट्यूब चैनल 4 पीएम बंद करने एवं लोक गायिका नेहा सिंह राठौड़ और लखनऊ विश्वविध्यालय की शिक्षिका डा. मेडूसा के खिलाफ एफआईआर करने का जबर्दस्त विरोध भी कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट से भी लोगों की उम्मीदें बनी हुई

समय माना बहुत खराब है। मगर विपक्ष लोगों में हिम्मत जगा रहा है। सुप्रीम कोर्ट से भी लोगों की उम्मीदें बनी हुई हैं। और मीडिया एक हिस्सा भी कलम छोड़ने को तैयार नहीं है। प्रिंट में चाहे कम आ रहा हो मगर लोग लिख रहे हैं। कुछ अख़बार चाहे छोटे हों मगर सवाल उठा रहे हैं। इलेक्ट्रोनिक में यू ट्यूब चैनल बहुत दम से सरकार को आइना दिखा रहे हैं। और खास तौर से सोशल मीडिया जहां जनता खुद पत्रकारिता कर रही है वह कोई बात छिपने नहीं दे रहा। हर मोबाइल में कैमरा है। ट्विटर फेसबुक है। हर चीज वहां आ जाती है। लोकतंत्र में यह जरूरी है। जनता के सूचना का अधिकार। सरकार इसे ही दबाना चाहती है। इसके खिलाफ आवाज उठाना होगी। क्योंकि अगर इस पहले दौर जिसमें एक चैनल, एक लोकगायिक, एक विश्वविद्यालय शिक्षिका की आवाज दबा दी तो फिऱ ज्यादा दौर नहीं चलाए जाएंगे। नेक्सट राउंड सैंकड एंड लास्ट में ही सब के खिलाफ मामले मुकदमे प्रतिबंध हो जाएंगे। यह टेस्ट केस है। इसका सफल होना लोकतंत्र के कुचल देगा। लेकिन आवाजें उठ रही हैं। ग्वालियर के शायर शमीम फरहत साहब ने कहा था तय लोगों को करना है कि “ डर के सो जाएं या औरों को जगा लें हम लोग! “

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। वभारत टाइम्स में राजनीतिक संपादक समेत कई मीडिया हाउस में महत्वपूर्ण पदों पर  रहे।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live  का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

 

 

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