शहर से गांव डगर तक की कहानी

ध्रुव शुक्ल

अभिनेता मनोज कुमार (24 जुलाई 1937-4 अप्रैल 2025) के निधन का समाचार सुनकर उनकी बनायी फिल्में याद आ रही हैं। शहीद भगत सिंह के चरित पर जो फिल्म उन्होंने निर्मित की, उसे कभी भुला नहीं पाऊॅंगा। शहीद भगत सिंह के बलिदानी जीवन को प्रकट करने में यह फिल्म अप्रतिम है। ‘उपकार’ और ‘पूरब-पश्चिम’ जैसी फिल्में भारत की किसान संस्कृति और भारत-यूरोप के बीच हो रहे साभ्यतिक द्वन्द्व की समीक्षा पेश करती हैं। बीसवीं सदी के छठवें और सातवें दशक में केवल मनोज कुमार ही नहीं, फिल्मों में अनेक बड़े अभिनेता भारत के लोगों को भारत की बात सुनाते रहे हैं।

‘लीडर’ फिल्म के हीरो दिलीप कुमार थे। बारह बरस की उमर में यह फिल्म देखी थी। अपने शहर सागर के मनोहर टाकीज से फिल्म देखकर घर लौटते हुए हम अपने आपको जवाहरलाल नेहरू से कम नहीं समझ रहे थे। वह गीत जो दिलीप साहब को सफेद कुरता-पायजामा पहनाकर भरी सभा में फिल्माया गया उसे आज तक नहीं भूल सका हूॅं —

हमने सदियों में ये आज़ादी की नेमत पाई है
सैकड़ों कुरबानियाॅं देकर ये दौलत पाई है
मुस्कुराकर खाई हैं सीने पे अपने गोलियाॅं
कितने वीरानों से गुज़रे हैं तो जन्नत पाई है
ख़ाक में हम अपनी इज़्जत को मिला सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं
जो सबक़ बापू ने सिखलाया भुला सकते नहीं ..

दिलीप कुमार की फिल्मों में आज़ादी के बाद का भारत बोलता रहा

दिलीप कुमार अभिनीत अनेक फिल्मों में आज़ादी के बाद का भारत बोलता रहा। किसान, मेहनतकश मजदूर और गाॅंवों के लोकजीवन की बहुरंगी इबारतें उनकी देह पर सहज झलक आती थीं। वे देहाती धोती-कुरते में खूब फबते थे। वे एक अभिनेता के रूप में भारत की लोकछबियों में डूबे रहे। वे ‘गंगा-जमुना’ के जल में भीगकर अपनी फिल्मों में उस ‘नये दौर’ का प्रतिनिधित्व करते रहे जिसमें एक विकासमान भारत की बुनियाद रखी जा रही थी। कारखानों के रूप में देश के नये तीर्थ बन रहे थे। उनका एक प्रसिद्ध रूप बंगाल के ‘देवदास’ का भी है। ट्रेजेडी के निर्विवाद नायक की उनकी पहचान का मुकाबला फिल्मी दुनिया में आज तक कोई न कर सका। दिलीप साहब की देवदास इमेज़ दिलों में इतनी घर कर गयी कि जब भी हम अपने किसी दोस्त को उदास देखते तो यही कहते — काहे दिलीपकुमार बने बैठे हो। वे कामेडी में भी कम नहीं थे। जिसे कामेडी में रॅंगना आता है वही ट्रेजेडी को अनुभूत कर सकता है।

भारत में बदनसीबी के चितेरे की तरह याद आते हैं गुरुदत्त 

आर. के. नारायण की कहानी पर आधारित राजू ‘गाइड’ की ट्रेजडी की अमिट आध्यात्मिक छाप देवानंद ने भी हमारे मन पर छोड़ी है। आज़ाद देश में देवानंद आधुनिक शहरों की बेबसी और अपराध के बीच फॅंसे जीवन को चरितार्थ करते रहे हैं। गुरुदत्त भारत में ग़रीबी और बदनसीबी के चितेरे की तरह याद आते हैं जो आज़ाद भारत में उन नायकों को ढूॅंढते हैं — ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाॅं हैं ‘। ‘काबुलीवाला” और ‘दो बीघा ज़मीन’ में बलराज साहनी की छबि को भुला नहीं पाता।

‘मदर इण्डिया’ को देखते हुए प्रेमचन्द के ‘गोदान’ उपन्यास की याद

फिल्मी दुनिया में राजकपूर ने फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर आधारित शैलेन्द्र की बनायी फिल्म ‘तीसरी कसम’ में जो हीरामन गाड़ीवान की छाप छोड़ी है, वह मन से मिटती ही नहीं। महबूब साहब ने जो ‘मदर इण्डिया’ फिल्म के परदे पर रचा उसे बार-बार देखते हुए प्रेमचन्द के ‘गोदान’ उपन्यास की याद आती है। पण्डित नेहरू के नये दौर में भूमिका निभाते दिलीप कुमार उस तांगेवाले के रूप में भुलाये नहीं भूलते जो नयी मोटरगाड़ी से होड़ लेने के लिए सब गाॅंव वालों की मदद से ताॅंगे के लिए राह निकालने से पीछे नहीं हटता।

दिलीप कुमार और उनके ज़माने के अभिनेताओं की अनेक हिन्दी फिल्में देखकर लगता है कि जैसे वे अपनी देह पर हम भारत के लोगों के लोक और आधुनिक शहरी जीवन की व्यथा का भार उठा रहे हैं। वे इस अहसास में डूबे हुए कलाकार लगते हैं कि ‘हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है।’ उस समय की फिल्में देखो तो ये अभिनेता बिना किसी मिर्च-मसाले के सीधी-सी बात कहकर देश के दिल का हाल सुनाते हैं। वे बिना डरे ‘कहके रहेंगे कहने वाले’ कलाकार थे।

(लेखक हिंदी के सुपरिचित कवि-कथाकार हैं। सम्प्रति सागर में रहकर स्वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live  का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

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