आदित्य भूषण मिश्रा
पहलगाम हमले के बाद इधर से जवाबी हमले को लेकर दबाव था। ख़बरें भी थीं लेकिन ऐसी जंग छिड़ जाएगी, इसका अंदाज़ा शायद किसी को न था। रणनीतिक, कूटनीतिक जंग होगी या एक हद तक फायरिंग और उसके जवाब होंगे, ऐसा लगा था और उसकी आदत भी रही है मगर अभी जो हो रहा वो कल्पनातीत सा लगता है। बहुत ही सिनेमा जैसा है सबकुछ।कई फिल्मों में ऐसा सा संवाद सुना होगा कि “मुझे चाहे जितना मार लो मगर मेरे परिवार को हाथ लगाया तो काट के रख दूँगा”। यानी सैनिकों की मुठभेड़ तक सब शांत था, मगर इस बार हमला नागरिकों और वो भी पर्यटकों पर था। विलेन कहता है जाकर मोदी से कह देना… और वो आकर मोदी से कहते हैं। फिर पानी रोकने और अचानक छोड़ने जैसी बात आती है, फिर सब शांत हो जाता है, जातिगत जनगणना की बातें होने लगती हैं। लगता है सब शांत हो गया पर वो तूफ़ान से पहले की शांति होती है। फिर मॉक ड्रिल की बात होती है और पाकिस्तान के कई आतंकवादी ठिकानों पर हमला हो जाता है।
सिनेमा जैसा दिखने वाला दृश्य पर्दे पर नहीं असल मे हो रहा
पाकिस्तान 1 दिन के इंतज़ार के बाद, अभी से चंद घण्टे पहले आम नागरिकों पर हमला करता है और जवाब में जंग शुरू हो जाती है। जंग हर ओर से लड़ी जा रही है। भारतीय सेना बहादुरी से लड़ रही है उनके छक्के छुड़ा रही है। वीडियो और तस्वीरें हैरान करने वाली हैं। आकाश में आग के गोले ही गोले दिख रहे हैं। लेकिन ये सिनेमा जैसा दिखने वाला दृश्य पर्दे पर नहीं बल्कि असल मे हो रहा है, जहाँ वापस से सब तुरन्त ठीक नहीं होगा। हमारी पीढ़ी एक ऐसे दौर में रही जो चाह कर भी आर्थिक और मानसकि तौर पर स्थिर नहीं हो पाई। तकनीक की रफ़्तार इतनी ज़्यादा है कि आपको हर वक़्त अपडेट रहना होता है और उसके बाद भी एक बड़े वर्ग के लोगों की नौकरी सतत ख़तरे में रहती है, फिर दो बार रेसशन, अपने तरह की अनोखी बीमारी कोविड और अब ये अनिश्चितता भरी जंग। जंग में जिनकी जानें जातीं हैं, सिर्फ वही नहीं मरते बल्कि जिनकी बचतीं हैं वो भी ज़िंदा नहीं रह जाते।
ऐसे समय कुछ ज़रूरी बातें
मैं कभी किसी युद्ध का समर्थक नहीं हो सकता लेकिन धैर्य का बाँध अगर टूट ही गया है तो इस वक़्त कुछ ज़रूरी बातें हैं जो अपनी समझ से हम नागरिकों को करनी चाहिए:- देश की सेना और उसके नेतृत्व के साथ खड़े रहें। चाहे हममें से कोई सरकार से खफ़ा रहा हो, इत्तिफ़ाक़ न रखता हो मगर अभी मुद्दा देश और उसकी रक्षा है, उसकी शान है। अब जब जंग शुरू हो ही गयी है तो सेना या सरकार की नीयत पर फ़िलवक़्त कोई सवाल नहीं करें। हम समवेत स्वर में उनका हौसला बढ़ाएं, समर्थन करें न कि नुक़्ताचीनी करते रहें। अब सेना और सरकार, अपना कश्मीर वापस ले ले या पूरा पाकिस्तान वापस ले ले या उन्हें डराकर छोड़ दे ये उनका फ़ैसला है और होना चाहिए। और बाक़ी मामलों में फिर भी ठीक है मगर रक्षा मामलों में घर बैठकर कतई विशेषज्ञ नहीं बनना चाहिए।
उन्मादी मत होइए यह क्रिकेट मैच नहीं है
दूसरा, उन्मादी मत होइए। यह क्रिकेट मैच नहीं है कि हर बॉल की कमेंट्री ज़रूरी हो, यह क्रिकेट मैच नहीं है कि मौत को सिक्सर मानकर उसपर जश्न और उल्लास मनाया जाए। उकसाने वाली बात और पल-पल की झूठी सच्ची खबर बिना जाने पोस्ट करने से बचिए। सब लोग अपने स्तर से खबरों पर नज़र बनाए ही हुए हैं लिहाज़ा फेसबुक स्टेटस पर हर 2 मिनट पर कुछ भी चेपना बंद कीजिए। इससे अफ़रा तफ़री हो सकती है, सुरक्षा व्यवस्था की खबरें लीक हो सकती हैं। उत्साही होना अच्छी बात है लेकिन सोशल मीडिया मात्र पर बॉर्डर से बहुत दूर बैठकर सेना को, पत्रकारों को इंस्ट्रक्शन देना, मौत पर जश्न मनाना और बेहूदी बातें करना, अशोभनीय होने के साथ मानसिक विक्षिप्तता के लक्षण हैं। वैसे तो मुझे चिल्लाते हुए समाचार वाचकों पर भी कोई भरोसा नहीं है लिहाज़ा सरकार के प्रेस कॉन्फ्रेंस पर ध्यान देना ज़्यादा ज़रूरी है मगर सोशल मीडिया के निजी पत्रकारों से बेहतर तो ई-मीडिया भी है ही। प्रार्थना कीजिये कि हमें लंबे समय तक युद्ध का दंश न झेलना पड़े लेकिन अगर ये भाग्य में लिखा ही गया हो तो फिर कम से कम आतंकवाद और उसके पालनकर्ता मुल्क की कमर और रीढ़ की हड्डी जुड़ने लायक नहीं रहे तो बेहतर।
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।