शहर से गांव डगर तक की कहानी

प्रेमकुमार मणि
लोकसभा में वक़्फ़ संशोधन बिल 2024 पेश किया गया. इसे लेकर राजनीतिक हलकों में चर्चा हो रही है. ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो इस बिल के बारे में कुछ नहीं जानते और माथा पीट रहे हैं. 1986 में कुछ ऐसा ही शाहबानो मामले में चिन्ता की गई थी. वक़्फ़ इस्लाम में अल्ला या मजहब के नाम पर समर्पित की हुई चल-अचल संपत्ति है, जिसका हिसाब-किताब रखने के लिए एक कमिटी या बोर्ड गठित है जो शरीअत के नियमों के अनुसार काम करता है. इसमें अनेक बार संशोधन हो चुके हैं. हालिया संशोधन 1995 का है, जिसे एक बार फिर संशोधन किया जाना सरकार ने आवश्यक माना है. संशोधन का प्रस्ताव कोई भी गूगल पर देख सकता है, इसलिए इस पर मैं कोई राय देने नहीं जा रहा हूँ. बिल जॉइंट पार्लिअमेंटरी कमिटी ( JPC ) से गुजर चुका है. अर्थात इस पर संसदीय मंथन का एक दौर हो चुका है.
जिनके बारे में यह कानून है उन्हें विश्वास में लिया जाय
धार्मिक-सामाजिक मामलों पर संशोधन और सुधार की पहल की पहली शर्त होती है कि जिनके बारे में यह कानून है उन्हें यथासंभव विश्वास में लिया जाय. अव्वल तो यह कि सुधार और संशोधन की मांग उस समाज या संप्रदाय के भीतर से ही हो. यह आदर्श स्थिति नहीं भी हो सकती है. विलियम बेंटिक के ज़माने में (उन्नीसवीं सदी में) जब सती निरोधक कानून बना था, तब इसके पक्ष में मुट्ठी भर हिन्दू थे. 1988 में जब दिवराला सती काण्ड हुआ तब कानून की धज्जियाँ उड़ाते जिस तरह करणी जुटान हुआ था,सब को याद है. डॉ आंबेडकर ने जब हिन्दू कोड बिल पेश किया था, तब बहुमत हिन्दू समाज उसके विरुद्ध था. अस्पृश्यता निवारण कानून के समय अपेक्षाकृत खुला विरोध कम था, लेकिन छुपा विरोध कम नहीं था. यह मानी हुई बात है कि मुस्लिम समाज में सामाजिक पिछड़ापन हिन्दुओं से कहीं अधिक है. मुस्लिम प्रश्रयप्राप्त तबका अधिक शातिर है. आम तौर पर अमीर मुसलमान मजहब की खाल ओढ़े रहता है, लेकिन अपने जीवन में आधुनिक सुख-सुविधाओं का इस्तेमाल उल्लास के साथ करता है. हर अमीर मुसलमान की संतान अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढता है, लेकिन वह मजहबी मदरसों की वकालत करता है, उर्दू पढ़ने और कुरान-हदीस के पाठ की नसीहत देता है.
बिल में समावेशी बनाने की कोई कोशिश नहीं दिखती
वक़्फ़ बोर्ड के मामले में एक चीज जानने की है कि इसकी दौलत अकूत है. सच्चर कमिटी ने 2006 में ही लगभग सवा लाख करोड़ की संपत्ति का आकलन किया था. इन बीस वर्षों में यह कितना हुआ होगा सहज अनुमान किया जा सकता है. इस बोर्ड पर मुट्ठी भर अशराफ मुसलमानों का कब्ज़ा है और वे इसका मनमाना इस्तेमाल करते हैं. मैंने इसका संशोधन प्रस्ताव जितना समझा है उसमें भी इसे समावेशी बनाने की कोई कोशिश नहीं दिखती. स्त्रियों और पिछड़े वर्ग के मुसलमानों की नुमाइंदगी की कोई चर्चा मेरे जानते नहीं है.
किसी भी संप्रदाय के धार्मिक मामलों में सुधार के कुछ बिंदु होने चाहिए. वे चाहे हिन्दू समाज के हों, मुस्लिम समाज के या अन्य किसी भी समाज के. ऐसे सुधारों पर इन समाजों में बहस कराई जाय. वह शरीअत हो या मनुस्मृति; देखा यह जाय कि क्या इस शरीअत या मनु संहिता के प्रावधान और भारतीय संविधान में कोई अंतर्विरोध तो नहीं है. यदि हो तो उसे भारतीय संविधान के अनुकूल किया जाय. क्योंकि आधुनिक समाज का आदर्श मनुस्मृति या शरीअत नहीं होगा. यह भी सुनिश्चित किया जाय कि किसी समाज पर बहुमत की तानाशाही नहीं थोपी जाय. लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता का यह भी मतलब नहीं कि कोई समाज अमानवीय अलोकतांत्रिक तरीके से चलता रहे. आज भी हिन्दुओं के धार्मिक तौर-तरीकों में ही कई तरह के संशोधन की जरूरत है.
वक़्फ़ मामले में कुछ सेकुलर साथियों की बेचैनी हास्यास्पद
वक़्फ़ मामले में कुछ सेकुलर साथियों की बेचैनी हास्यास्पद किस्म की है. यह जरूर देखा जाना चाहिए कि मुसलमानों की भावना आहत न हो. लेकिन सुधार और संशोधन को सिरे से नकारना सही नहीं होगा. हर समाज में उसके कानूनों में समय- समय पर सुधार होने ही चाहिए. लेकिन इसके पीछे किसी खास जमात को अपमानित और आहत करने का मक़सद हो तो यह निश्चित ही निंदनीय होगा.
मेरा मत है मुस्लिम समाज को एक बड़े परिवर्तन से गुजरने की जरूरत है. बहुत पहले मैंने कवि कैफ़ी आज़मी से यह बात की थी तो वह बिगड़ गए थे. उनका जवाब डरा-सहमा था. आम तौर से मुसलमानों पर कट्टरपंथियों का एक दबाव होता है. वे आज भी अरब के रेगिस्तानी धरती पर ईसा की सातवीं सदी में होने की बात करते हैं. बकरे की तरह दाढ़ी, उटांग पाजामा और टोंटीदार लोटा उनकी पहचान होते हैं. दरिया के बीच हो कर भी वे वजू करने का स्वांग करेंगे. इन आदतों से निकल कर उन्हें स्वयं आधुनिक बनने की कोशिश करनी चाहिए. जब इंसान स्वयं नहीं सुधरता तो उसे पुलिस सुधारने लगती है. इसलिए कोशिश यह हो कि हर धर्म-मजहब के लोग स्वयं सुधार और संशोधन करते रहें.

 

(लेखक पत्रकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक कई किताबें प्रकाशित। उन्होंने अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)

 

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live  का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version