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वक़्फ़ संशोधन क़ानून को लेकर देश में हंगामा मचा हुआ है। वजह है, मुस्लिम समाज की धार्मिक परम्परा में हस्तक्षेप। ऐसा कहने वालों की संख्या बहुत है। स्पष्ट है की इसका विरोध भी जमकर हो रहा है लोकतान्त्रिक समाज में ऐसा होना स्वाभाविक है। लेकिन सत्ता पक्ष विरोध करने वालों को देशद्रोही जब कहने पर आतुर हो जाए तो नए सिरे से देश और समाज को लोकतंत्र समझने की ज़रूरत है। शिवसेना एकनाथ शिंद गुट के नेता संजय निरुपम के एक बयान ने आग में घी का काम कर दिया है। उन्होंने कहा, “जो लोग इस कानून (वक्फ बिल) का विरोध करेंगे, शाहीन बाग बनाने की कोशिश करेंगे, वे न भूलें कि कभी भी उनका जलियांवाला बाग भी हो जाएगा। इसलिए सावधान रहें और जो कानून बना है उस कानून का सम्मान करें, आपके साथ अन्याय न हो इसकी व्यवस्था हमलोग करेंगे।” सीधे सीधे ये साहब चेतावनी ही तो दे रहे हैं कि Waqf Amendment Act के विरुद्ध यदि शाहीन बाग़ जैसा आन्दोलन खड़ा किया तो जलियांवाला बाग़ बना दिया जाएगा. चेतावनी देने के अर्थ को चलिए समझते हैं।
वक़्फ़ संशोधन क़ानून पर बिलबिलाइए मत
नवभारत टाइम्स में वरिष्ठ पदों पर रहे पत्रकार युसुफ़ किरमानी लिखते हैं; वक़्फ़ संशोधन क़ानून पर बिलबिलाइए मत. हालाँकि मेरा नसीहत देने या वसीयत करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन सच्चाई ये है कि अब ज्ञानी जैल सिंह जैसा राष्ट्रपति कहां जो किसी बिल को रोक ले और अपनी असहमति के साथ सरकार को वापस भेज दे। और सरकार भी मजबूर होकर अपना इरादा त्याग दे। वक़्फ़ संशोधन क़ानून सामने है। अब शहर दर शहर रोजाना नए मुद्दे खड़े होंगे। ये मस्जिद सरकारी जमीन पर है। ये कब्रिस्तान सरकारी जमीन पर है। आप लड़ेंगे तो आपको जन्मजात हिंसक बताया जाएगा। आपको विदेशी बताया जाएगा, पाकिस्तान भेजा जाएगा।
गांधीवादी तरीके से बुज़ुर्ग आंदोलन खड़ा करें
किरमानी आगे कहते हैं कि अगर आपको इन हालात का मुकाबला करना है तो सिर्फ और सिर्फ गांधीवादी तरीके से फिर से शाहीनबाग आंदोलन खड़ा करें। इसमें युवकों को शामिल न करें। सिर्फ बुजुर्ग मर्द और औरतें घरों से बाहर निकलें। यह आंदोलन 10-20 साल चलाना पड़े तो चलाइए। ताकि आंदोलन याद दिलाता रहे कि बहुसंख्यकवाद की हिमायती पार्टी ने क्या गलती की है। अगर आप खुद को जिन्दा कौम मानते हैं तो खड़ा होना पड़ेगा। गांधीवाद के रास्ते से जब गोरे अंग्रेजों को हमारे बाबा-दादा भगा चुके हैं तो काले अंग्रेजों को भगाना मुश्किल नहीं है।
सदन में अभिषेक मनु सिंघवी ने जो कहा
इस बिल में सुधार कम, संशय ज़्यादा है; न्याय कम, पक्षपात ज़्यादा है। संविधान ने जो दिया, यह बिल वह छीनने की कोशिश कर रहा है। इसको संशोधन कम, साज़िश ज़्यादा कहा जाना चाहिए। जब क़ानून बराबरी का ना हो तो वह सत्ता की चालाकी बन जाता है। यह क़ानून नहीं, क़ानूनी भाषा में लिपटी हुई मनमानी है।
पहला यह की यह बिल 100% हमारे संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 का उल्लंघन करता है. मुझे मौक़ा मिला था, एक वकील की हैसियत से, सबरीमाला, संथारा, दाऊदी बोहरा इत्यादि धार्मिक समुदायों के कई मुद्दों को बहस करने का। दो सिद्धांत बड़े स्पष्ट रूप से 1950 के दशक से अब तक बार बार, बारम्बार, सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किए हैं। यह सिद्धांत धर्मतटस्थ यानी रिलिजन न्यूट्रल हैं। एक है कि अगर किसी भी प्रथा को किसी भी धर्म, मजहब या संप्रदाय की कोई भी रीति रिवाज, प्रथा, उस धर्म का आभिन्न अंग माना गया है। इतिहास में, संस्कृति में, किताबों में, इत्यादि, तो उसको अनुच्छेद 25 और 26 का पूरा व्यापक सुरक्षा चक्र मिलेगा। और दूसरा, की अगर किसी ऐसे धर्म, समुदाय या संप्रदाय का अपनी संस्थाओं को संचालित करने का, अधिकार क्षेत्र बड़े पैमाने में, या बहुत बड़ी मात्रा में कानून द्वारा घटाया गया, या नष्ट किया गया, तो वह क़ानून असंवैधानिक करार किया जाएगा।
इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट के उदाहरण हैं।1953 और 1954 में शिरूर मठ एवं रतिलाल गांधी जैसे मशहूर केस, दरगाह कमेटी और तिलकायत गोविंदलाल जी महाराज जैसे कई केसों के फैसले हैं। जैसा रतिलाल केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा: “A law, which takes away the right of administration altogether from the religious denomination and vests it in any other or secular authority, would amount to violation of the right which is guaranteed by article 26 (d) of the Constitution.”
दूसरा प्वाइंट है-, बिल के clause 11 के अंतर्गत 100% सदस्य प्रादेशिक वक़्फ़ बोर्ड के ऐसे व्यक्ति होंगे जिनको प्रदेश सरकार नियुक्त/नॉमिनेट करेगी है। 100% नॉमिनेशन और 0% उस समुदाय के सदस्य का चयन। क्या अधिकार क्षेत्र बचा धर्म और समुदाय को अपने वर्गों के लोगों को चुनने का? यानी सरकार सारे सदस्य अपने आदमी को नियुक्त या मनोनीत करेगी। उस समुदाय के सदस्य वहां नही होंगे।
(कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील भी हैं।)