शहर से गांव डगर तक की कहानी

सुनील 

आदिवासी यानी आदिकाल से रहने वाले इस देश के मूल निवासी! सर्वोच्च न्यायालय एक फैसले में इस बात को दोहरा चुका है कि आर्यो और द्रविड़ो से भी पहले आदिवासी समूह इस भारत भूमि पर रहते थे। उन्हें छोडकर बाकी सब यहां बाहर से आकर बसें है, चाहे हजारों साल पहले क्यों न बसें हो। विडंबना यह है कि इस भूमि के सबसे पुराने मूल निवासी ही सबसे ज्यादा शक्तिहीन, भूमिहीन, बेघर, वंचित, दलित और गरीब है। आधुनिक विकास के यज्ञ में सबसे ज्यादा बलि उनकी जिंदगियों की ही चढ़ी है और आधुनिक सत्ता-प्रशासन की संवेदन शून्यता, दमन, शोषण व भ्रष्टाचार के शिकार भी वे सबसे ज्यादा हुए हैं। कोई अचरज की बात नही है कि देश के आदिवासी इलाकों में माओवादी हिंसा की आग धधक उठी है। वैसे कई जगह और कई मौको पर वे लोकतांत्रिक तरीकों से भी आवाज उठाते रहे हैं  तथा कई बार अपने को असहाय पाकर उन्होने नियति को चुपचाप मंजूर भी कर लिया है। आदिवासियों की यह हालत भारतीय लोकतंत्र पर एक गहरा प्रश्नचिन्ह खडा करती है। इतिहास इस बात का गवाह है कि जब प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला की हार के साथ ही भारत के ऊपर अंग्रेजो की सत्ता कायम होने का रास्ता साफ हो गया था, उन्हें पहली सशक्त चुनौती भारत के जंगलों में आदिवासियों के प्रतिरोध से ही मिली। 1857 के काफी पहले आदिवासियों के विद्रोह शुरू हो गए थे। 1857 में भी और बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी के आंदोलन में भी उनकी जोरदार भागीदारी रही, भले ही इतिहास की किताबों में उसे ठीक से दर्ज न किया गया हो।

‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ की बुनियाद आदिवासियों और जंगलो के विनाश पर ही रखी गई

देश आजाद होने के बाद समता, विविधता और समरसता पर आधारित एक नए भारत के निर्माण का मौका आया था, जिसमें औपनिवेशिक काल के अन्यायों का निराकरण हो सकता था। भारत के संविधान निर्माताओं ने भी संविधान के अंदर आदिवासियों के हितों के संरक्षण और संवर्धन के प्रावधान करने की कोशिश की, किंतु अन्य कई मामलों की तरह इस में भी भारतीय जनता के साथ विश्वासघात हुआ। संविधान की मूल भावना और इसके महान लक्ष्यों की धज्जियां उड़ती रही। आजादी मिलने के बाद पहली बड़ी घटना बस्तर के राजा प्रवीरचन्द भंजदेव की पुलिस द्वारा हत्या थी, जिसने आगे की घटनाओं का संकेत दे दिया था। भंजदेव आदिवासी नहीं थे, लेकिन वे आदिवासियों के राजा थे और यह आंदोलन पूरी तरह आदिवासियों का ही था। बाद की फर्जी मुठभेड़ो का यह संभवतः पूर्वाभास था। उधर पश्चिम की नकल पर चली विकास योजनाओं में भी सबसे ज्यादा आदिवासियों का ही आशियाना उजड़ा। बड़े बांध हो या बड़े कारखाने – ‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ की बुनियाद आदिवासियों और जंगलो के विनाश पर ही रखी गई। भिलाई, बोकारो या राउरकेला – सब आदिवासियों की जमीन पर ही बने। आज भी उनके आसपास रहने वाले आदिवासी कंगाल, कुपोषित, वंचित और फटेहाल है।

वैश्वीकरण के दौर में विकास के नाम पर आदिवासी जीवन पर हमला बढ़ा

आधुनिक विकास की इन विसंगतियों के भतीभांति सामने आने के बाद भी उस पर गंभीरता व ईमानदारी से पुनर्विचार की प्रक्रिया अभी तक शुरू नहीं हुई है। बल्कि वैश्वीकरण के ताजे दौर में विकास के नाम पर आदिवासी जीवन पर हमला बढ़ गया है। भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को और प्रांतो में उसके प्रतिनिधि के रूप में राज्यपालों को अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण की विशेष शक्तियां और जिम्मेदारी दी गई थी। वे चाहें तो आदिवासी इलाको में किसी भी कानून या योजना के क्रियान्वयन को रोक सकते है। लेकिन स्वतंत्र भारत में आज तक एक बार भी राष्ट्रपति या किसी राज्यपाल ने आदिवासियों के हित में इन शक्तियों का प्रयोग नही किया। भूरिया समिति की रपट के आधार पर बने ‘पेसा’ कानून का क्रियान्वयन से ज्यादा उल्लंघन होता रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार ने तो सरगुजा जिले में एक ग्रामसभा द्वारा बिजली कारखानें के लिए जमीन देने से इंकार करने पर उस गांव को नगर में बदलने का कमाल कर दिया, ताकि पेसा कानून आडे नही आए। आदिवासी इलाको की ग्राम सभा या जनसुनवाई को हमारे आईएएस अफसर अपनी जूती की नोक के बराबर भी नहीं समझते हैं। कमोबेश यही हाल दो वर्ष पहले संसद में पारित वन अधिकार कानून का भी हो रहा है। डा. ब्रहमेदव शर्मा के रूप में भारत के अनुसूचित जातियों व जनजातियों के आयुक्त की उनचालीसवीं रपट एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जिसने हालातों का विस्तार से जायजा लिया था तथा सुझाव भी दिए थे। किंतु यह रपट अलमारियों में रखी धूल खा रही है। उधर डा.शर्मा सेवानिवृत्त के बाद खुद मैदान में कूद पड़े तो जगदलपुर में सत्ता व कंपनियों के दलालों द्वारा उनके कपड़े फाडने जैसी फजीहत कर दी गई। आजाद भारत में आदिवासियों के उत्पीड़न का एक बड़ा स्त्रोत वन कानून, वन प्रबंधन और वननीति रही है। अंग्रेजो द्वारा भारतीय जंगलों पर अपना कब्जा करने, व्यवसायिक दोहन तथा आदिवासियों का अधिकार खत्म करने के हिसाब से बने कानूनों व नीति को आजाद भारत में भी जारी रखा गया। विश्व बैंक और अन्य विदेशी सहायता ने भी इसी को पुष्ट किया। इसकी मूल मान्यता है कि जंगलों  में आदिवासियों की उपस्थिति ही जंगल व जंगली जानवरों के नाश का कारण है, इसलिए उनको हटाया जाए या उनके द्वारा जंगल उपयोग को रोका जाए।

जंगल, जंगली जानवरों और आदिवासियों का सह-अस्तित्व हजारों सालों से रहा

हम भूल गए कि जंगल, जंगली जानवरों और आदिवासियों का सह-अस्तित्व हजारों सालों से रहा है। उनको अलग किया तो न जंगल बचेंगे और न आदिवासी बचेंगे। हमने शेरों और हाथियों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय उद्यान व अभयारण्य तो बनाए लेकिन यह भूल गए कि आदिवासियों के संरक्षण की भी जरूरत है और जंगल व जंगली जानवरों के नाश के दोषी आदिवासी नहीं, खुद औपनिवेशिक व आजाद सरकारों की नीतियां रही है। करीब 50 हजार शेरों और लाखो वन्य प्राणियों का शिकार तो आजादी के पहले के सौ वर्षो में अंग्रेज अफसरों व नवाबों-राजाओं द्वारा हुआ है। गुनाह किसी का और सजा किसी और को! आदिवासियों के साथ यह अन्याय और साम्राज्यवादी सलूक आज भी जारी है। आदिवासियों के अपने विशिष्ट धर्म, रीति-रिवाज, भाषा, संस्कृति और पहचान भी लगातार हमले का शिकार हो रहे है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350 ए में स्पष्ट निर्देश था कि – ‘प्रत्येक राज्य और उस राज्य के अंतर्गत प्रत्येक स्थानीय सत्ता भाषाई अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधा जुटाएगी।’ किंतु आज तक आदिवासी बच्चों को उनकी अपनी भाषाओं से शिक्षा देने की व्यवस्था नहीं की गई। आदिवासी भाषाएं गहरे संकट में है और खत्म हो रही है और एक भाषा के साथ एक समुदाय की संस्कृति, पहचान, इतिहास और आत्मविश्वास जुड़े होते है, जिन पर संकट आता है। यदि भारतीय लोकतंत्र को सही मायने में सार्थक और भागीदारी वाला बनाना है तो इसके ढांचे, इसकी शैली और इसके अमल को बुनियादी रूप से बदलना जरूरी हो गया है। भारतीय जनता के सबसे नीचे के पायदान पर स्थित आदिवासियों का क्या होता है यह इसकी असली परीक्षा होगी। इसके लिए राजधानियों के वातानुकूलित महलों में अफसरों-नेताओं-कंपनियों द्वारा लिए जाने वाले फैसलों को रोककर, गांवों-जंगलों में रहने वाले लोगों को अपने फैसले लेने का अधिकार देना पडेगा। इसके लिए मौजूदा पंचायती राज नाकाफी है। भारत की केन्द्रीकृत सत्ता और अफसरशाही के ढांचे को तोड़कर, प्रशासनिक ढांचे को बुनियादी रूप से बदलकर, मौजूदा कानूनों व नीतियों की गहरी समीक्षा करके, विकास के मौजूदा माॅडल को भी बदलना पडेगा। भारतीय लोकतंत्र के छः दशक पूरे होने यदि सबसे पुराने धरती-पुत्र असंतुष्ट, बैचेन व संकटग्रस्त है तो इसकी गंभीर समीक्षा व बुनियादी बदलाव का वक्त आ गया है।

Photo credit: Prashant Panjiyar: Indian Tribal Art I Ho Tribe, Jharkhand.

(यह लेख 25 जनवरी, 2011 को  लिखा गया था तब सुनील समाजवादी जन परिषद के
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और आदिवासी इलाकों के मैदानी नेता थे।)

(यह लेखक के निजी विचार हैं। जीटी रोड लाइव का सहमत होना ज़रूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का सम्मान करते हैं।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version