शहर से गांव डगर तक की कहानी

डॉ. इन्तिख़ाब आलम 
बाबा बुल्ले शाह का यह कलाम भारतीय सूफ़ी परंपरा और भक्ति रस से ओत-प्रोत है। इसमें होली के त्यौहार का सूफ़ी रंग में चित्रण किया गया है, जहाँ आध्यात्मिक प्रेम, ईश्वर की निकटता और आत्मा के परमात्मा में विलय की भावना को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त किया गया है।
पंक्तियों का भावार्थ:
होरी खेलुँगी कह कर बिस्मिल्लाह
नाम नबी की रतन चढ़ी, बूँद पड़ी अल्लाह-अल्लाह”
यहां बाबा कहते हैं कि मैं “बिस्मिल्लाह” (अल्लाह के नाम से शुरुआत) कहकर होली खेलूँगी। यहाँ होली सांसारिक रंगों की जगह आध्यात्मिक रंगों से भरी हुई है। यह वह रंग है जो “नबी” (पैगंबर मुहम्मद) के प्रेम से रँगा हुआ है, और जिस पर अल्लाह की कृपा की वर्षा हो रही है।
रंग-रंगीली ओही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना-फ़िल्लाह
असली रंग वही है, जो “फ़ना-फ़िल्लाह” यानी ईश्वर में विलीन होने की स्थिति को प्राप्त कर चुका हो। यहाँ ‘सखी’ का अर्थ साधक या भक्त से है, जो परमात्मा के प्रेम में डूब चुका हो।
अलस्तो-बे-रब्बेकुम पीतम बोले, सब सखियाँ ने घुँघट खोले
क़ालू-बला ही यूँ कर बोले, ला-इलाहा इल-लल्लाह”
यह सूफ़ी परंपरा की गूढ़ अवधारणा से जुड़ा हुआ है। ‘अलस्तो-बे-रब्बेकुम’ एक क़ुरआनी संदर्भ है, जहाँ अल्लाह ने आत्माओं से पूछा था—”क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूँ?” और आत्माओं ने उत्तर दिया—”क़ालू-बला” यानी “हाँ, तू ही है।”
यहाँ ‘घूँघट खोलने’ का अर्थ आत्मज्ञान प्राप्त करने से है। सखियाँ (भक्त) सत्य को पहचान कर परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाती हैं और इस भक्ति की अभिव्यक्ति ‘ला-इलाहा-इल-लल्लाह’ (अल्लाह के सिवा कोई उपास्य नहीं) के रूप में होती है।
नहनो-अक़रब की बंसी बजाई, मन-अरफ़-नफ़्सह की कूक सुनाई
फ़सम्मा वज्हुल्लाह की धूम मचाई, विच दरबार रसूलल्लाह”
 ‘नहनो-अक़रब’ का अर्थ है “हम तुम्हारे बहुत क़रीब हैं”—यह भी क़ुरआन से लिया गया है, जो ईश्वर और बंदे के बीच की निकटता को दर्शाता है। ‘मन-अरफ़-नफ़्सह’ का अर्थ है “जिसने अपने आत्मा को पहचाना, उसने अपने रब को पहचान लिया।”यहाँ पर ‘बंसी बजाना’ और ‘धूम मचाना’ प्रतीकात्मक रूप से यह दर्शाते हैं कि जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया, उसे हर जगह ईश्वर का ही दर्शन होता है।
हाथ जोड़ कर पाँव पड़ुँगी, आजिज़ हो कर बिंती करूँगी
झगड़ा कर भर झोली लूँगी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह”
बाबा यहाँ भक्त की विनम्रता और समर्पण को दर्शा रहे हैं। वे कहते हैं कि मैं अल्लाह के सामने हाथ जोड़कर विनती करूँगी और झगड़कर (ज़िद करके) उसकी दया (नूर-ए-मोहम्मद) को प्राप्त करूँगी।
फ़ज़कुरूनी की होरी बनाऊँ, वश्कुरूली पिया को रिझाऊँ
ऐसे पिया के मैं बल-बल जाऊँ, कैसा पिया सुब्हान-अल्लाह”
‘फ़ज़कुरूनी’ यानी “मुझे याद करो”—यह एक क़ुरआनी आदेश है, जहाँ अल्लाह कहता है कि जो मुझे याद करेगा, मैं उसे याद करूँगा।बाबा कहते हैं कि मैं इसी स्मरण (ज़िक्र) को अपनी होली बनाऊँगी और इसी के माध्यम से अपने प्रियतम (ईश्वर) को रिझाऊँगी।
सिब्ग़तुल्लाह की भर पिचकारी, अल्लाहुस-समद पिया मुँह पर मारी
नूर नबी दा हक़ से जारी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह”
 ‘सिब्ग़तुल्लाह’ का अर्थ है “अल्लाह का रंग”—यह सूफ़ी दर्शन में आत्मा पर पड़ने वाले ईश्वरीय प्रभाव का प्रतीक है।‘अल्लाहुस-समद’ का अर्थ है “अल्लाह पूर्ण और आत्मनिर्भर है।” यहाँ यह बताया गया है कि होली की पिचकारी से ईश्वरीय प्रेम के रंग की बौछार हो रही है।‘नूर-ए-मोहम्मद’ यानी पैगंबर मुहम्मद का प्रकाश, जो ईश्वर की ओर से एक सत्य के रूप में प्रवाहित हुआ।
बुल्लिहा शौह दी धूम मची है, ला-इलाहा इल-लल्लाह
बुल्ले शाह इस अंतिम पंक्ति में कहते हैं कि परमात्मा की भक्ति की धूम मची हुई है और इसका सार ‘ला-इलाहा-इल-लल्लाह’ में समाहित है, यानी ईश्वर ही सबकुछ है।
बुल्ले शाह की यह रचना सूफ़ी रंग में डूबी हुई है, जहाँ होली को केवल एक पर्व के रूप में नहीं, बल्कि ईश्वर-प्रेम, आत्मसमर्पण और आध्यात्मिक एकता के प्रतीक के रूप में देखा गया है। इसमें आत्मा और परमात्मा के मिलन की अनुभूति को ‘रंग’ और ‘होली’ के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है।
यह कलाम सूफ़ी प्रेम की गहराई और भक्ति के रंग में रँगी हुई है, जिसमें होली की पारंपरिक अवधारणा को आध्यात्मिक ऊँचाई दी गई है। इसके मुख्य बिंदु हैं :
-सांसारिक रंगों की जगह आध्यात्मिक रंगों का महत्व।
-आत्मा का ईश्वर से मिलन (सूफ़ी सिद्धांत: फ़ना-फ़िल्लाह)।
-होली को भक्ति और प्रेम के उत्सव के रूप में प्रस्तुत करना।
-क़ुरआन और इस्लामी अवधारणाओं का सूफ़ी भाषा में प्रयोग।
-ईश्वर की निकटता और उसकी याद को ही असली “होरी” मानना।

(लेखक स्वतंत्र लेखक व पत्रकार हैं। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live  का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

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