प्रेमकुमार मणि
कांग्रेस पार्टी ने बिहार प्रांतीय कांग्रेस के अध्यक्ष को हटा कर नया अध्यक्ष बना दिया है. नाम नहीं लिख रहा हूँ कि नाम में कोई दम नहीं है. न जाने वाले में, न आने वाले में. पिछले दो दशकों से यही देखता आया हूँ कि बिहार कांग्रेस का प्रांतीय अध्यक्ष हटने के बाद कोई दूसरा दल ज्वाइन कर लेता है. कितनों का नाम लें. महबूब अली कैंसर, अनिल शर्मा, अशोक चौधरी के नाम याद आ रहे हैं. निवर्तमान भी दूसरे दल में जाएंगे ऐसा लगभग तय है.
कमज़ोरी समझ लेगी कांग्रेस उठ कर खड़ी हो जाएगी
यह उस कांग्रेस का हाल है, जिसने लम्बे समय तक बिहार में राज किया है. लेकिन पिछले पैंतीस साल से यह लटक पार्टी बन कर रह गई है. कांग्रेस की विफलता ने बिहार की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति मजबूत की है. मैं नहीं समझता कांग्रेस की स्थिति में सुधार की फिहाल कोई गुंजाइश है. लेकिन राजनीति में कभी-कभार असंभव भी संभव होता है. संभव है कांग्रेस में नई कोंपलें प्रस्फुटित हों और कोई जादुई परिणाम आ जाए. पिछले दिनों बिहार कांग्रेस प्रभारी कृष्णा अल्लावारु की सक्रियता की खबरों के बीच से एक अपुष्ट खबर निकल कर आ रही है कि कांग्रेस अपने दम पर बिहार में राजनीति करना चाहती है. इसलिए अल्लावारु लालू परिवार को कोई तरजीह नहीं दे रहे हैं. नहीं जानता खबर में कितना दम है, लेकिन यदि सचमुच अपने पैर पर खड़ा होती है तो उसके लिए बेहतर होगा.
1990 के बाद के बिहार में कांग्रेस लगातार क्यों नीचे गिरती गई? इस पर उसे स्वयं विचार करना चाहिए. 1980 से 89 के बीच कांग्रेस लगातार सत्ता में रही. इस बीच उसके पांच मुख्यमंत्री हुए. जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भगवत झा और सत्येंद्र सिन्हा. छठे बदलाव में फिर जगन्नाथ मिश्र हुए थे. सब के सब केवल दो ऊँची जाति से आते थे. इसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि पिछले पैंतीस साल से तथाकथित ऊँची जाति के लोग स्थाई तौर पर राजनीतिक हाशिये पर आ गए. जिस कांग्रेस में कभी पर्याप्त संख्या में दलित, पिछड़े, मुसलमान और ऊँची जातियों के लोग होते थे, वह कैसे केवल दो ऊँची जातियों के नेताओं की कठपुतली बन गई. इसी कांग्रेस ने कभी दरोगाप्रसाद राय, भोला पासवान शास्त्री, अब्दुल ग़फ़ूर को मुख्यमंत्री बनाया था. जिसने बीरचंद पटेल, रामलखन यादव, राम जयपाल यादव, लहटन चौधरी, सुमित्रा देवी, अब्दुल कयूम अंसारी, मुंगेरीलाल , डीपी यादव, देवशरण सिंह, सिद्धेश्वर प्रसाद सिंह जैसे नेता दिए , वहां आज पिछड़े वर्ग के नेताओं का अभाव क्यों है. यह कांग्रेस थी, जिसने मूर्खतावश अपनी जमीन खो दी. जिस रोज कांग्रेस अपनी कमजोरी समझ लेगी उसी रोज उठ कर खड़ी हो जाएगी. उसे बदलती हुई स्थितियों में स्वयं को बदलना होगा. उसे अपने ही इतिहास का अवलोकन भी करना होगा.
पढ़ाई-लिखाई में आगे आया वर्ग राजनीति में भी आगे
दिवंगत इतिहासकार रामशरण शर्मा ने बातचीत में एक बार बताया था कि 1930 तक बिहार कांग्रेस बेजान थी. प्रांतीय कांग्रेस कमिटी में अकेले कायस्थ 56 फीसद थे. उसके बाद मुसलमान, राजपूत, भूमिहार और ब्राह्मण थे. राष्ट्रीय आंदोलन के दूसरे चरण में जब संघर्ष तेज हुआ और जेल जाना जरूरी हुआ तब कायस्थ पीछे हटने लगे और भूमिहारों ने बढ़त बना ली. यह भूमिहारों में स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में हुए स्वाभिमान आंदोलन का नतीजा था. पढ़ाई-लिखाई में जैसे ही कोई समुदाय आगे आता है राजनीति में भी आगे आता है. इस संघर्ष का नतीजा हुआ कि श्रीकृष्ण सिंह ने 1937 में बिहार के प्रधानमंत्री की कुर्सी झटक ली. आज़ादी मिलने के समय तक भूमिहारों और कायस्थों का दबदबा बना रहा. 1947 में मुख्यमंत्री के पद पर श्रीकृष्ण सिंह थे तो बिहार कांग्रेस के चीफ महामाया प्रसाद सिन्हा थे. बाद में राजपूत जुड़े और उसके भी बाद में ब्राह्मण. बिहार के प्रथम ब्राह्मण कांग्रेस अध्यक्ष प्रजापति मिश्र थे. रेणु ने अपने उपन्यास ‘ मैला आँचल ‘ में इस सामाजिक सच्चाई को दर्ज किया है. उनके मेरीगंज में ब्राह्मण तीसरी शक्ति हैं. वहाँ मुसलमान भी होते तो वे चौथी शक्ति हो जाते.
आज़ादी के बाद बिहार कांग्रेस ने परिश्रम पूर्वक हाशिये के लोगों को पार्टी से जोड़ा था. दलित नेता जगजीवन राम तो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित थे, एम् एन राय की रेडिकल पार्टी, पिछड़े वर्गों के त्रिवेणी संघ, आदिवासी नेता रामजयपाल सिंह मुंडा आदि को कांग्रेस में शामिल कराया. इन सबका ही नतीजा था कि कांग्रेस इतने दिनों तक टिकी रही.
कांग्रेस को उसकी वास्तविक ज़मीन से काट दिया
लेकिन कांग्रेस में 1970 के दशक के मध्य से संजय गाँधी का जैसे-जैसे वर्चस्व बढ़ा उसमें ऊँची जातियों के लम्पट तत्वों का वर्चस्व बढ़ता गया. संजय काल मुश्किल से छह सात साल का रहा. आपातकाल से संजय की मौत तक. लेकिन इसने कांग्रेस को उसकी वास्तविक जमीन से काट दिया. यह अकारण नहीं था कि बिहार में मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद कांग्रेस और जनता पार्टी के जनसंघी धड़े ने हाथ मिला लिया और कर्पूरी सरकार को पदच्युत कर दिया. पत्रकार नीरजा चौधरी की किताब ‘ हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड ‘ में इस बात का उल्लेख है कि 1980 और 84 के चुनाव में आरएसएस ने कांग्रेस का साथ दिया था. इस बात को इंदिरा गांधी भी स्वीकार करती थीं. इसी का नतीजा कांग्रेस अब तक भुगत रही है. मैं यह बराबर कह रहा हूँ कि भाजपा को केवल कांग्रेस ही चुनौती दे सकती है और उसे राष्ट्रीय स्तर पर यदि सुदृढ़ होना है तो हिंदी पट्टी में अपने को मजबूत करना होगा. उत्तरप्रदेश और बिहार में उसे अपने पतन के कारणों की सम्यक समीक्षा करनी चाहिए और जातिवादी नेताओं से अपना पिंड छुड़ा कर अपने बूते बढ़ना चाहिए. उसे खोने के लिए यूँ भी यहाँ कुछ है नहीं, पाने के लिए भावी इतिहास है.
(लेखक समाजवादी चिंतक व लेखक हैं। मूलत: बिहार के, कुछ किताबें भी प्रकाशित।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।