शहर से गांव डगर तक की कहानी

विद्याभूषण
मृत्यु सबकी नियति है। एक दिन इन शब्दों का लेखक भी नहीं रहेगा। कल डाॅ. रोज केरकेट्टा ने लगभग दो साल तक रोग-दुख से संघर्ष करते हुए अपनी देह को अलविदा कहा। वे मुझसे तीन महीने छोटी थीं, लेकिन उनकी जीवन यात्रा बड़े प्रयोजनों के लिए प्रतिबद्ध और समर्पित रही। उनके कृतित्व के बहुमुखी रुझानों को रेखांकित करने की एक कोशिश मैंने भी की थी। सन 2020 में प्रकाशित ‘झारखंड की हिन्दी परम्परा के शब्द-शिखर‘ नाम की पुस्तक में समकालीन लेखकों के बीच उनकी खास पहचान बताने के लिए उन पर केन्द्रित आलेख का शीर्षक दिया था-‘देशज कलम की एक मजबूत मिसाल‘। भरोसा है कि अब वह स्मृतिशेष मिसाल आने वाले दिनों में मशाल बन कर ऊर्जा और प्रकाश देती रहेगी। मैंने लिखा था-‘वह समय बहुत पीछे छूट चुका है जब आदिवासी जन हिन्दी पुस्तकों के सिर्फ पाठक हुआ करते थे। आज उनके बीच से कई कलमकार हिन्दी लेखकों के बीच अपनी पैठ बनाने की ओर तेजी से अग्रसर हैं। संचार माध्यमों में हिन्दी लेखन का जो परिदृश्य झारखंड के फलक पर सामने है, वह तस्दीक कर रहा है कि आदिवासी कलम की धार असरदार है। याद आती है ग्रेस कुजूर की एक कविता ‘कलम को तीर होने दो‘। राम दयाल मुंडा जी के महाप्रयाण के बाद आज की तारीख में आदिवासी कलम की सबसे वरिष्ठ मिसाल हैं रोज केरकेट्टा जो जीवन के हीरक वर्ष के समीप पहुंच रही हैं।
लंबे समय तक झारखंड आन्दोलन में शरीक रहीं 
यह बताना मुश्किल है कि उनके बहुमुखी व्यक्तित्व का कौन-सा पहलू पहले पहचान में आया-एक्टीविस्ट या साहित्यकर्मी। जानी-मानी बात है कि वे लंबे समय तक झारखंड आन्दोलन में शरीक रहीं। सन 1989 के अगस्त में केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा गठित ‘झारखंड विषयक समिति‘ में वे अकेली महला प्रतिनिधि के रूप में सूचीबद्ध हुईं। इस समिति की रिपोर्ट फरवरी, 1993 में संसद में विचारार्थ पेश की गई थी। लेकिन इससे बहुत पहले, सन 1978 में, वे झारखंड बुद्धिजीवी परिषद की कार्यकारिणी समिति की सदस्य रह चुकी थीं। उन्हीं दिनों विचार और अभिव्यक्ति से उनका नाता बना। सन 1978 में, ‘शालपत्र‘ के पांचवें अंक में, खड़िया भाषा और संस्कृति पर उनकी एक टिप्पणी आयी थी। उस समय वे रोज टेटे थीं । उसके बाद प्रेमचंद की दस कहानियों के खड़िया अनुवाद की उनकी पुस्तक आई जिसके लोकार्पण समारोह में बतौर एक वक्ता और साक्षी बनने का सुयोग इन पंक्तियों के लेखक को भी मिला था। इस तरह उनका लगभग चार दशकों से निरन्तर सक्रिय कार्यकाल उन्हें एक ओर अपनी मातृभाषा खड़िया और दूसरी ओर हिन्दी में रचनात्मक लेखन के लिए समर्पित व्यक्ति के रूप में रेखांकित करता है। इसी तरह वे विचार और समाज संगठनों के प्रति सदा सनिष्ठ रही हैं।
महिला अधिकार और उत्पीड़न के खिलाफ सक्रिय रहीं
उनका कई दशकों का एक लंबा समय जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग में बतौर प्राध्यापक काम करते हुए बीता। इस दौरान भाषा-संस्कृति और समाज पर उनके आलेख आते रहे, यदाकदा रचनाएं छपती रहीं। विश्वविद्यालय परिसर से बाहर उनकी मुखर सक्रियता महिला अधिकार और उत्पीड़न के खिलाफ जारी रही। गोष्ठियों-संगोष्ठियों, पुस्तक लोकार्पण समारोहों, सभा-सम्मेलनों-शिविरों में उनकी निरन्तर भागीदारी से उनकी पहचान एक्टीविस्ट के रूप में मजबूत बनती गई। जहां तक उनकी साहित्यिक क्रियाशीलता की बात है तो सबसे पहले यह बात ध्यान में आती है कि खड़िया के संवर्धन और समृद्धि के लिए उनके प्रयत्नों की प्रशंसा होती रही है और अब अपने हिन्दी लेखन की लय-गति को व्यवस्थित रूप देना उन्होंने शुरू किया है। उनकी रचनाशीलता की सही परख के लिए यह ध्यान में रखना जरूरी है कि वह खड़िया और हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखती आ रही हैं। उनके हिन्दी कहानी संग्रह ‘पगहा जोरी-जोरी रे घाटो‘ के लिए उन्हें पिछले दिनों (2019 में) मुजफ्फरपुर (बिहार) में ‘अयोध्या प्रसाद खत्री‘ सम्मान दिया गया। इस संग्रह में उनकी दस कहानियां संकलित हैं। इन कहानियों में जंगल के बीच या आसपास बसे गांवों का समाज, लोक जीवन और चरित्र अंकित हुए हैं। परम्परा और परिवर्तन के बीच टकराव के संक्रमण का यथार्थ उनका केन्द्रीय कथ्य है। सामयिक इतिहास के दबावों को सीधे-सादे, अलंकरणमुक्त अंदाज में प्रस्तुत करती इन कहानियों का सौन्दर्य उनकी निराभरण सादगी है।
हिन्दी शब्दों के उच्चरण पर आंचलिक प्रभाव और स्थानीय रंग की बानगी
ध्यान में आता है कि झारखंड में लिखी जा रही हिन्दी कहानी मुख्यतः शहरों और कस्बों के इर्दगिर्द सिमटी हुई दिखलाई पड़ती है। रोज केरकेट्टा ने जिस दूरस्थ इलाके से अपनी कहानियों के प्लाॅट्स उठाये हैं, वहां तक शहरी मध्य वर्ग की पहुंच पर्यटक की निगाह से भी दुर्लभ है। हिन्दी शब्दों के उच्चरण पर आंचलिक प्रभाव और स्थानीय रंग की बानगी के लिहाल से इस संग्रह की कहानियों को नजीर होने की सनद मिल सकती है। इस कथाभूमि से जुड़ाव के दावेदार आज की तारीख में रोज केरकेट्टा और कालेश्वर जैसे गिनेचुने कलमकार ही हैं। पुरानी पीढ़ी के पाठकों को ‘दुंबी हो‘, ‘बैजून हो का मकान‘, ‘आज शनिवार है‘ और ‘दोमुंडा पहाड़़‘ जैसी कहानियों के लेखक योगेन्द्रनाथ सिनहा की याद आ सकती है। खास बात यह है कि रोज की इन कहानियों में ग्रामीण परिवेश, भौगोलिक पृठभूमि, सामाजिक संबंध, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन, वर्गीय आक्रोश और टकराव के वर्णित प्रसंग प्रामाणिक हैं। नरेटर ने अपनी कलम की नोंक पर नई-पुरानी पीढ़ी की स्त्री की बदल रही स्थिति और नियति को उकेरा है। इन कहानियों में मुखर और सक्रिय प्रतिरोध का स्वर आंचलिक यथार्थ के नये तेवर से परिचय कराता है। ‘भँवर‘, ‘गंध‘ और ‘घाना लोहार की‘ शीर्षक कहानियों के क्लाइमेक्स इसकी मिसाल हैं।
आदिवासी मन और समाज जीवन का लोक रंग मुख्य रूप में अंकित
रोज केरकेट्टा के ताजा कविता संग्रह को द्विभाषी कहा जा रहा है चूंकि खड़िया में लिखित कविताओं के ‘अबसिब मुरडअ‘ शीर्षक इस संग्रह का हिन्दी रूपान्तर कवयित्री ने खुद किया है। लिहाजा इन कविताओं को अनुवाद मानना एक तकनीकी मुद्दा भले बना दिया जाये, उसे मूल अनुभव की पुनर्रचना कहना ही उचित लगता है। यह उनकी कविताओं की पहली पुस्तक है जिसमें आदिवासी मन और समाज जीवन का लोक रंग मुख्य रूप में अंकित हुआ है। प्रकृति मनुष्य की शाश्वत सहचरी है और रोज ने इसका जीवन्त चित्रण किया है। जाहिर है, कि ये कविताएं ग्रामीण पर्यावरण से जुड़े पाठकों को अधिक आत्मीय लग सकती हंै और शहरी मन-मिजाज की तस्दीक की फिक्र से उनका सरोकार नहीं है। उम्र के जिस पड़ाव पर सबके लिए जो विश्राम का समय होता है, उस दौर में पहुंच कर भी रोज केरकेट्टा जी विचार और सृजन में गतिशील हैं, यह ऊर्जस्वित करने वाली बात है। उनसे अभी और बेहतर की प्रतीक्षा की जा सकती है।
(विद्याभूषण वरिष्ठ साहित्यकार हैं। कई पुरस्कार और सम्मानों से समादृत। कई दर्जन किताबें प्रकाशित।)
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