शहर से गांव डगर तक की कहानी

पुष्यमित्र

विधायिका(संसद या विधानसभा) कानून बनाती है, राष्ट्रपति या राज्यपाल उस पर कुंडली मार कर बैठ जाते हैं। संविधान कहता है, आप ऐसा कर नहीं सकते। आपको जल्द से जल्द इसे स्वीकृत करना है। अदालत, विधायिका के इसी अधिकार की सुरक्षा के लिए फैसला सुनाती है। और कहती है, तीन महीने से अधिक किसी विधेयक को स्वीकृति नहीं देंगे तो उसे स्वीकृत मान लिया जाएगा।

न्यायपालिका का आदेश विधायिका को ही सशक्त कर रहा

ये सांसद महोदय निशिकांत दुबे या तो इतना भी नहीं समझ पा रहे कि न्यायपालिका का यह आदेश विधायिका को ही सशक्त कर रहा है। उसे उसकी संवैधानिक ताकत लौटा रहा है। वह जो कानून बना रहे है, उस पर राष्ट्रपति या राज्यपाल कुंडली मार कर बैठ न जाए, बस इसी को लागू करवा रहा है। या फिर देश इतना पोलराइज हो गया है कि इन्हें अपने अधिकार, विधायिका के अधिकार से अधिक फिक्र राष्ट्रपति और राज्यपाल के अनाधिकार चेष्टाओं की है।

और हां, यह याद रखा जाना चाहिए कि इस देश में राष्ट्रपति और राज्यपाल का पद प्रतीकात्मक है। शासन का अधिकार विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को ही है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई पुस्तक प्रकाशित। इंडिया टुडे से संबद्ध।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live  का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

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