शहर से गांव डगर तक की कहानी

राकेश कायस्थ

मैं यह बात कई बार लिख चुका हूं और अक्सर दोहराता हूं कि भारतीयों का मूल सांचा एक है। एक आम भारतीय भावुक, अतार्किक प्रतिक्रियावादी, अपने मामले में बेहद टची और दूसरों के मामलों में असंवेदनशील है। मावा एक है.. गोल कर दोगे तो लड्डू बनेगा और चपटा करोगे तो बर्फी बन जाएगी। हाइवे के किसी डाबे पर जो ग्रेवी चिकेन मसाला की होती है, उसी में पनीर के दो टुकड़े डाल देने से पनीर मसाला बन जाता है।
इसीलिए मैं कभी भी किसी व्यक्ति का आकलन इस आधार पर नहीं करता कि वो किस तरफ खड़ा है। उसने कौन सी विचारधारा का झंडा पकड़ रखा है। ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि वह क्या कह रहा है और क्या कर रहा है। संदर्भ फिल्म मेकर अनुराग कश्यप का ब्राहणों को लेकर दिया गया बयान है। मेरे लिए यह मान पाना कठिन है कि यह बयान किसी भी तरह उस हेट कैंपेन की भाषा से अलग है, जो इस समय इस देश में मुसलमानों को लेकर चल रहा है।

बदजुबानी करके अनुराग कश्यप ने बहुत से फैन बनाये

फिर अनुराग कश्यप किस आधार पर `प्रोग्रेसिव’ माने जा सकते हैं? हमारे सामने कई ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जब लोगों ने ब्राहणों को रात-दिन गालियां देकर सोशल मीडिया पर अपनी पहचान बनाई। सुधा भारद्वाज जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के जेल जाने पर खुशी का इजहार सिर्फ इसलिए किया क्योंकि वो ब्राहण हैं। रवीश कुमार के खिलाफ उनकी जाति को लेकर व्यवस्थित कैंपेन चलाये। कला जैसे क्षेत्रों से जुड़े लोगों को मरने के बाद भी ब्राहण होने के नाते लानतें भेजी गईं और ऐसे करने वाले कई लोग दो टके का सरकारी प्रोजेक्ट मिलने के बाद दुनिया को अपना गोत्र बताने लगे। मैं यह नहीं कह रहा कि अनुराग कश्यप भी ऐसा ही करेंगे। लेकिन बदजुबानी उनकी शैली रही है और ऐसा करके उन्होंने बहुत से फैन भी बनाये हैं।
नये-नये अंबेडकराइट बने कई सवर्ण लोगों को मैंने ऐसी भाषा इस्तेमाल करते देखा है। हो सकता है, इससे उन्हें सोशल मीडिया पर कुछ ज्यादा फॉलोअर मिल जाये लेकिन अंतत; वह मुद्दा पीछे चला जाएगा जिसके साथ खड़े होने का वो दावा कर रहे हैं।

बहुजन नायकों को हड़पकर उनका संघीकरण करना

सेंसरशिप एक बहुत बड़ा मुद्दा है। जो भी व्यक्ति सरकार के साथ नहीं है, उसे हरेक स्तर पर अपनी बात कहने से रोका जा रहा है। बहुजन नायकों को हड़पकर उनका संघीकरण करना एक दूसरा बड़ा मुद्दा है।
ये दोनों सवाल अब पार्श्व में चले जाएंगे और अगले कई दिनों तक देश में सिर्फ ब्राहणों के अपमान का मुद्दा गूंजेगा। कम्युनिकेशन बिजनेस में अपनी जिंदगी बिता देने वाले अनुराग कश्यप क्या यह बात जानते नहीं थे कि इस तरह के बयान पर प्रतिक्रियाएं कैसी होंगी? अगर यह बयान जानबूझकर दिया गया है तो इसका मतलब यह है कि अनुराग कश्यप को किसी मुद्दे से ज्यादा बड़ी चिंता सुर्खियां बटोरने की है। अगर यह बयान किसी रियेक्शन में या अनजाने में दिया गया है तो इसका मतलब यह है कि कश्यप गंभीर किस्म के भावनात्मक असंतुलन के शिकार है, जो समय-समय पर उनकी प्रतिक्रियाओं में दिखाई देता है। ऐसा व्यक्ति समाज और राजनीति से जुड़े बड़े सवालो को आगे बढ़ाने में भला किस तरह मददगार हो सकता है? देश में इस समय लड़ाई असली मुद्दों पर संवाद बनाने और उन्हें डीरेल करने की है। हर व्यक्ति जो यह चाहता है कि बुनियादी सवालों पर बात हो उसे भावुक प्रतिक्रियाओं से बचना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। रामभक्त रंगबाज़ उनकी चर्चित पुस्तक है।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live  का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

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