शहर से गांव डगर तक की कहानी

प्रेमकुमार मणि

फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ (4 मार्च 1921 – 11 अप्रैल 1977) निःसंदेह चर्चित और लोकप्रिय लेखक थे, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी मुसीबतें कम थीं. हर नगर में उनके प्रशंसक थे, तो निंदक-आलोचक भी कम नहीं थे. उनकी रचनाएं सराही जा रही थीं, तो ख़ारिज भी की जा रही थीं. लोग उनके बारे में गहराई से जानना चाहते थे. शायद तुलसीदास को लेकर भी उनके ज़माने में ऐसा ही माहौल था. उनकी जाति, जन्मस्थान, कुल-खानदान को लेकर भी कई तरह के प्रवाद थे. ऐसे प्रवाद रेणु भी झेल रहे थे. वह संभवतः हिन्दी के प्रथम लेखक थे, जिनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर कई तरह की कथा-परिकथा साहित्यिक समाज में प्रचलित थी. रेणु इन सब से अनिर्लिप्त जरूर थे,लेकिन संवेदनहीन नहीं थे, कि इन सबका उन पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता हो. शायद इन्हीं स्थितियों ने उन्हें धीरे-धीरे तंत्र-साधना की ओर मोड़ दिया था. सही आकलन तो कोई मनोवैज्ञानिक ही कर सकता है, लेकिन रेणु कुल मिलाकर भीड़ में अकेले होते थे. उनके विहँसते चेहरे के भीतर गहन अवसाद की परतें होती थीं. सब मिलाकर यह कि उन्होने स्वयं ही अपने चारों ओर रहस्य की कुहेलिका सृजित कर ली थी. इस कुहेलिका के बीच वह कितना सुरक्षित अनुभव करते थे यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि उनकी रचनात्मकता केलिए यह उत्प्रेरक का काम करता था.

मैला आँचल के नायक की लोग सबसे पहले जानना चाहते हैं -कौन जात ?

लेखकों की दुनिया कई तत्वों से मिलकर बनती है. हिन्दी लेखकों की कुछ ज्यादा ही. उसमें एक जाति भी है. मैला आँचल का नायक प्रशांत मेरीगंज में एक डॉक्टर के रूप में पहुँचता है, तो लोग सबसे पहले उसकी जाति जानना चाहते हैं. कौन जात ? लेखकों की दुनिया इससे बहुत अलग नहीं थी. पटना में रेणु की जाति जानने की खूब कोशिश हुई. रेणु जिस सामाजिक संवर्ग से आते थे उससे पढ़े-लिखे लोग न के बराबर थे. लेखक तो और भी नहीं. रेणु को भी इस बात का एहसास था कि लोग उनके बारे में जानना चाहते हैं. कैसे पता नहीं होता. पटना आज भी अपने संस्कारों में एक बड़े गाँव जैसा है. 1950 के दशक में कैसा होगा अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं है. पूर्णिया जिले का एक सोशलिस्ट कार्यकर्ता जो अब लेखक बन गया है, अपनी बंगाली पत्नी, जो अस्पताल में नर्स है, के साथ रहता है और फ़िलहाल हिंदी साहित्याकाश में छाया हुआ है. नगर-नगर गोष्ठी-दर-गोष्ठी उसकी चर्चा हो रही है. ख्यात् आलोचक नलिनविलोचन शर्मा की टिप्पणी आती है ” मैं अपने श्रेष्ठ उपन्यासों की सूची से ‘गोदान’ को छोड़कर किसी रचना को ‘मैला आँचल ‘ केलिए अपदस्थ कर सकता हूँ.” तहलका मचना स्वाभाविक था. मचा भी. इस तहलके के साथ लोकप्रियता का जो गुबार उठा, उससे उनके निंदक-आलोचक भी गली-गली में हो गए. उनके जाति-गोत्र की तलाश आरम्भ हुई. रेणु क्या कहते. उनके पास कहने केलिए कुछ खास नहीं था. हिन्दी की दुनिया मेरीगंज की तरह बारहों बरन से भरी नहीं थी. यहाँ कुल मिलाकर द्विज वर्चस्व था. शुक्लों, तिवारियों, कायथों और सिंहों के कुनबे थे. स्वाभाविक था रेणु केलिए स्थिति असहज होने वाली थी. संभवतः इन्हीं स्थितियों में उन्होंने अपने लिए कुछ कहानियां गढ़ीं. ख्यात्आलोचक डॉ सुरेंद्र चौधरी की इस पर दृष्टि गई है. उन्होंने लिखा : ” रेणुजी ने अपने बारे में कुछ कहानियाँ प्रचारित की थीं. सब करते हैं. निश्चय ही, इसके पीछे कोई मानसिक कारण होता है, मन की कोई माँग होती है, कभी कोई सामाजिक अपेक्षा होती है. इन कहानियों से कोई फर्क नहीं पड़ता. दोस्तों से इन कहानियों की जानकारी हुई. पर ये कहानियाँ अत्यंत सादी कहानियाँ थीं, भावना में निर्दोष. रेणु के बंगाली होने की बात भी उन्हीं निर्दोष अंतर्कथाओं में से एक हैं. ये अंतर्कथाएं केवल एक ही निर्देश करती हैं, रेणु के व्यक्तित्व का निर्माण गहरे भावनात्मक और सामाजिक अंतर्विरोधों के भीतर से हुआ था. शायद इन्हीं तीखे विरोधों ने रेणु को लेखक, कार्यकर्ता और किसी हद तक क्रान्तिकारी बनाया. पढाई छोड़ कर रेणु एक सक्रिय क्रान्तिकारी बने और फिर लम्बी भटकनों के बाद बीमार होकर पटना आए. तब शायद रेणु के संबंध में पटना के साहित्यिक माहौल को कोई जानकारी नहीं थी. इस पूरी कथा की पृष्ठभूमि में लतिकाजी का व्यक्तित्व कार्यरत रहा. इस पर अपनी ओर से कुछ कहना व्यर्थ है. ” ( रेणु : एक अंतर्कथा, सुरेंद्र चौधरी, इतिहास संयोग और सार्थकता, संपादक उदयशंकर, पृष्ठ 171 , अंतिका प्रकाशन , दिल्ली )

हर किसी के राजनीतिक प्रतिबद्धता की खबर रखी जाती

जाति के बाद दूसरा घेरा वैचारिक था. 1950 के दशक में रेणु लेखक के रूप में चर्चित होते हैं. वह दौर विश्वस्तर पर शीतयुद्ध का था. घनघोर राजनीतिक. हर किसी के राजनीतिक प्रतिबद्धता की खबर रखी जाती थी. रेणु तो पहले से ही ख्यात् समाजवादी थे, भले ही उनका राजनीति से मोहभंग हुआ हो, उनका समाजवादी ठप्पा कहाँ जाने वाला था. कम्युनिस्टों का प्रगतिशील खेमा इनकी खबर क्यों लेता. उस दौर में प्रगतिशील लेखक संघ के नेता और सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ रामविलास शर्मा, 28 जुलाई 1959 को 12 , अशोकनगर, आगरा से अपने मित्र कवि केदारनाथ अग्रवाल को पत्र लिखते हैं. और बातों के बीच लिखते हैं – ” मैला आँचल पढ़ा. उसके बाद परती परिकथा जबरदस्ती पढ़ी. रेणु अपने पहले उपन्यास में नीम प्रयोगवादी था. दूसरे में सोलहों कलाएं पूरी हो गयी हैं. इन उपन्यासों पर अगस्त अंक केलिए लेख लिखा हैं. ” ( मित्र संवाद , संपादक, रामविलास शर्मा, अशोक त्रिपाठी, परिमल प्रकाशन,इलाहाबाद, 1991, पृष्ठ 227 ). केदारनाथ अग्रवाल उपरोक्त खत का जवाब 11 अगस्त 1959 को बांदा से देते हैं. मैं केवल रेणु प्रसंग को उद्दृत कर रहा हूँ ” रेणु मुझे कभी अच्छा न लगा. मैं तो उसकी दोनों पुस्तकें पढ़ ही नहीं पाता. गाड़ी आगे नहीं घसीटती. वैसे हम उन उपन्यास सम्राट से अपनी इस कमजोरी केलिए माफी मांगने को तैयार हैं. उनके गोलन्दाजों से भी क्षमा के प्रार्थी हैं, जो उन्हें बलात् हिंदी के महान कथाकार प्रेमचंद के ऊपर बैठाते हैं.” ( वहीं, पृष्ठ 228 )

भारतीय बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से को सोवियत संघ से उम्मीद थी

कम्युनिस्ट खेमे के इस उपेक्षाभाव से रेणु कभी निराश नहीं हुए. उनकी लेखकीय सक्रियता बनी रही. 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ. पार्टी दो धड़ों में बंट गई. दूसरे धड़े ने स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी कहा. इस विभाजन का कार्यकर्ताओं पर क्या प्रभाव हुआ इसे लेकर रेणु ने एक मार्मिक कहानी लिखी हैं ‘ आत्मसाक्षी ‘. यह माया पत्रिका में 1965 में प्रकाशित हुई. यह वह समय था जब भारतीय बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से को सोवियत संघ से उम्मीद थी कि वे विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए कुछ करेंगे. लेकिन रेणु उनके भीतर उभर रहे मिथ्याचार को देख रहे थे.स्वाभाविक था दोनों के बीच कोई वैचारिक सेतु बनना मुश्किल था. लम्बे अरसे तक हाइबरनेशन में रहने के बाद प्रगतिशील लेखक संघ 1970 के दशक में फिर से सक्रिय हुआ, तो रेणु जयप्रकाश आंदोलन में सक्रिय हो गए. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इसके विरोध में थी. कम्युनिस्ट खेमे से रेणु की दूरी और अधिक बढ़ गई. रेणु ने इसकी कभी परवाह नहीं की,जैसे रेणु के जनपद के ही उनके दूसरे समकालीन रचनाकार नागार्जुन ने की. प्रगतिशील लेखक संघ को रेणु से ऐसा संबंध था कि उनकी मृत्यु पर शोक प्रकट करने से भी परहेज किया.

आम पाठकों में रेणु की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही थी

लेकिन स्थितियां धीरे-धीरे परिवर्तित हुईं. आम पाठकों में रेणु की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही थी. हालांकि जिस आंचलिकता से रेणु का लेखन लथ-पथ था, वह अब दूर की चीज होती जा रही थी. उनकी कहानियों और उपन्यासों के पात्र और परिस्थितियां उनके अपने विशेष प्रक्षेत्र पूर्णिया या कोसी अंचल से भी तेजी से विलुप्त हो रहे थे. इससे ही पता चलता कि कोई बात थी जो रेणु को प्रासंगिक बना रही थी. वह प्रासंगिकता उनके सौ साल पूरा होने के बाद भी यथावत है. कथाकार निर्मल वर्मा जिनका अपना लेखन भाषा और कथ्य दोनों स्तरों पर रेणु से सर्वथा भिन्न है, रेणु के प्रति गहरा अनुराग आकर्षण स्वीकार करते हैं. उन्होंने स्पष्ट किया है कि रेणु का रचना-संसार चूँकि उनके रचना संसार से सर्वथा भिन्न है, इसलिए ही वह उनके लेखन में आकर्षण का अनुभव करते हैं. अज्ञेय का रेणु के प्रति लगाव झुकाव सर्वविदित है. लेकिन यह भी है कि मार्क्सवादी लेखकों ने उनकी उपेक्षा की. यह उपेक्षा संभवतः जान-बूझकर थी. इसके कारण भी साहित्यिक से अधिक राजनीतिक थे. उनका कम्युनिस्ट खेमे का न होना ही कारण रहा होगा. हालांकि जेपी-आंदोलन से जुड़ाव के अतिरिक्त रेणु ने राजनीतिक टीका-टिप्पणियां (कम्युनिस्टों के खिलाफ ) शायद ही कभी की.

पहले समीक्षक सुरेंद्र चौधरी ने रेणु को समझने की कोशिश की

डॉ. सुरेंद्र चौधरी पहले मार्क्सवादी समीक्षक थे, जिन्होंने रेणु को समझने की कोशिश की. 1988 में उनका एक मोनोग्राफ रेणु पर प्रकाशित हुआ. यह साहित्य अकादेमी की भारतीय साहित्य के निर्माता कड़ी में प्रकाशित है. मृत्यु के ग्यारह वर्ष बाद साहित्य अकादेमी को इस बात की फ़िक्र हुई कि रेणु को इस कड़ी में रखा जाय. यह है तो लगभग सौ पृष्ठों की एक लघुकाय पुस्तक, लेकिन अपने गांभीर्य से महत्वपूर्ण है. डॉ चौधरी ने रेणु, उनके समय, लेखन और महत्त्व को सम्पूर्णता के साथ विवेचना की है. डॉ. चौधरी की निम्नोक्त टिप्पणी ध्यान देने योग्य है – ” यदि रेणु की जीवनी लिखी जाय, तो वह पुनर्मूल और पुनर्मूल्यांकन की समकथा बन जाए. ऐसा सोचने का मेरा आधार यह है कि उन्हें बलात् नजरअंदाज करने की चेष्टाएँ की गई हैं. समाजवादी कहे जाने वाले लोगों ने शायद उनकी सबसे ज्यादा उपेक्षा की है. उसके बाद प्रगतिशीलों की बारी आएगी. उनके जीवन की परिघटनाओं को हमने हमेशा नजरअंदाज किया है. जिन लोगों ने भी उनके सम्बन्ध में लिखा है, वे उनके पूरे विकासक्रम से अपरिचित रहे हैं. उनके सम्बन्ध में औपचारिक रूप से यों बहुतों ने लिखा है, मगर यह सब ऊपरी है. कहीं-कहीं बातें जिस अंदाज में कही गई हैं, उनसे सहमत होना बहुतों केलिए संभव नहीं है.”

रेणु की जड़ें दूर तक गाँव की जिंदगी में पैठी हुई

रेणु के लोक को संभवतः पहली बार डॉ. चौधरी ने समझा और रेखांकित किया – ” रेणु की जड़ें दूर तक गाँव की जिंदगी में पैठी हुई है, भारतीय गाँव, छोटे-बड़े, कस्बानुमा. कभी-कभार शहर भी गाँवों का आभास देता है. मार्क्स ने इन ग्राम-समुदायों को ‘नदी के द्वीप’ कहा था – जड़ और निरीह. मगर उन्होंने यह भी लक्षित किया था कि अपनी निरीहता के बावजूद इन ग्राम- समुदायों ने विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है. अनेक निरंकुश पूर्वी साम्राज्य इन्हीं गाँवों से अपना पोषण प्राप्त करते रहे हैं. विशाल ब्रितानी साम्राज्य का पोषण इन्हीं गाँवों से हुआ था. अवश्य ही समय-समय पर ऐसी लहरें आईं जिन्होंने इसकी जड़ता को तोडा. मगर यह सब एक पुरा-कथा है. रेणु के समकालीन गाँव एक लम्बे और कष्टकारी दौर से गुजर रहे थे. आज़ादी ने कम-से-कम इस कष्टकारी दौर को जनभावना के भीतर समाप्त कर दिया था. गाँवों में यह भावना जनांदोलनों के भाव से पैदा हुई थी. अपने समकालीन ग्राम-समुदायों की निरीहता के बावजूद रेणु ने उन्हें जड़ नहीं पाया था. रेणु के साहित्य में गाँव जीवित हैं धड़कते और प्रतिक्रिया करते हुए.. ”

रेणु किसी आलोचक समीक्षक के मोहताज नहीं

इन धड़कते और प्रतिक्रिया करते हुए गाँवों को बहुत कम लोगों ने रेणु साहित्य में अनुभव किया. पूरा भारतीय जीवन ग्राममय है. यहाँ तक कि उसके ज्यादातर नगर भी ग्रामीणता के आभास देते हैं. इन्हीं ग्रामसमाज पर मार्क्स ने ऊँगली उठाते हुए इन्हें एशियाई समाज के राजनीतिक और सामाजिक पिछड़ेपन का जिम्मेदार बताया था. रेणु उनमें जनतांत्रिक आंदोलनों के सूत्र तलाशते हैं. यह काम किसी मार्क्सवादी को करना चाहिए था. लेकिन मार्क्सवादी कठमुल्लेपन की अपनी ही प्रकृति- प्रवृति होती है. इससे मुक्त होना भी इतना आसान नहीं है. रेणु को नीम-प्रयोगवादी, कलावादी और इस के समकक्ष विशेषणों से जोड़ कर आलोचक समाज ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली. सब मिला कर यह तय पाया गया कि रेणु एक आंचलिक कथा-लेखक हैं जिनके साहित्य में पूर्णिया अंचल का ग्रामीण जीवन धड़कता है. वह एक इलाके के लेखक हैं, क्षेत्रीय लेखक रचनाकार, जैसे क्षेत्रीय राजनीतिक दल होते हैं. लेकिन कुछ बात तो है कि रेणु रवीन्द्रनाथ टैगोर और प्रेमचंद के बाद तीसरे ऐसे लेखक हो गए हैं जिनकी स्वीकृति विश्व स्तर पर है. वे किसी आलोचक समीक्षक के मोहताज नहीं हैं. अपनी विशिष्टता से ही वह सबको आकर्षित कर रहे हैं.

(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live  का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

 

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