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झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यसभा सांसद दिशोम गुरु शिबू सोरेन का 81 वर्ष की आयु में निधन हो गया. सीएम हेमंत सोरेन ने इसकी जानकारी सोशल मीडिया पर दी. उन्होंने लिखा, “आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सबको छोड़कर चले गए. आज मैं शून्य हो गया हूँ…” दिशोम गुरुजी शिबू सोरेन ने दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में अंतिम सांस ली.

उनकी हालत में कुछ सुधार हुआ, लेकिन कई दिनों से वे लाइफ सपोर्ट पर थे

लंबे समय से किडनी की बीमारी और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे गुरुजी को 19 जून 2025 को दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में भर्ती कराया गया था. उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ था और उनकी हालत गंभीर होती चली गई. हालाँकि, इलाज के दौरान उनकी हालत में कुछ सुधार हुआ था, लेकिन कई दिनों से वे लाइफ सपोर्ट पर थे. बीते दिनों दिशोम गुरू शिबू सोरेन की तबीयत को लेकर अस्पताल ने हेल्थ बुलेटिन जारी किया था जिसके अनुसार उनकी हालत स्थिर बनी हुई थी. लगातार विदेशी डॉक्टरों से सलाह ली जा रही थी. मुख्यमंत्री स्वयं अस्पताल में मौजूद थे और डॉक्टरों से लगातार जानकारी ले रहे थे. हालांकि, उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था. शिबू सोरेन, जिन्हें झारखंड समेत पुरी दुनिया ‘दिशोम गुरु’ यानी ‘जनजातीयों के गुरु’ के नाम से जानती है, केवल एक नेता नहीं बल्कि झारखंड की आत्मा और आदिवासी समाज की आवाज, एक आंदोलनकारी और सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे.

साधारण आदिवासी परिवार से सत्ता के शिखर का सफ़र

नेमरा गांव, हजारीबाग (अब रामगढ़) की मिट्टी में जब 11 जनवरी 1944 को एक बालक ने जन्म लिया, तब किसी ने नहीं सोचा था कि यही बालक आगे चलकर पूरे आदिवासी समाज की आवाज़ बनेगा। वह बालक थे — शिबू सोरेन, जो संथाल जनजाति से थे। एक किसान परिवार में जन्मे शिबू के जीवन की शुरुआत ही संघर्ष से हुई। उनके पिता सोबरा सोरेन, जो खुद ज़ुल्म और अन्याय के खिलाफ खड़े हुए तो इसकी कीमत जान देकर चुकानी पड़ी। लेकिन, यह महज एक पारिवारिक त्रासदी नहीं थी — यह उस आदिवासी चेतना का जन्म था, जिसने भविष्य में एक आंदोलन को जन्म दिया। 1960 और 70 के दशक में जब विकास के नाम पर आदिवासी क्षेत्रों में खनिज और ज़मीन की लूट मची, तो कोयल-कारो और संथाल परगना की आत्मा कराह उठी। आदिवासियों के खेत उजड़ रहे थे, जंगल छीने जा रहे थे, और पहचान मिटाई जा रही थी। सिस्टम बहरी थी और राज्य की सरकार मौन। तब शिबू सोरेन ने आदिवासी अस्मिता की मशाल जलाई। गांव-गांव जाकर लोगों को जगाया, संगठित किया, और इस तरह झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना हुई। यह सिर्फ एक राजनीतिक दल नहीं था — यह एक जनक्रांति की शुरुआत थी। जल, जंगल और जमीन को बचने का आन्दोलन का मोर्चा खुद शिबू सोरेन ने संभाला, वे लोगों की जमीन पर से कब्जा छुड़वाते, और कानूनी लड़ाइयों में साथ देते। उनका यह समर्पण उन्हें “दिशोम गुरु” की उपाधि दिलाई .

राजनीति का कठिन रास्ता

1980 में जब वे पहली बार सांसद बने, तो संसद में एक आवाज़ बन कर उभरे जो गांव, जंगल और ज़मीन की बात करता था। उन्होंने कोयला मंत्री और जनजातीय मामलों के मंत्री जैसे पदों पर रहकर केंद्र में भी आदिवासी हितों की लड़ाई लड़ी। 2004 और फिर 2009 में झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन ये पद कभी भी उनके संघर्ष की सीमा नहीं बने। उनके लिए सत्ता सिर्फ सेवा का माध्यम रहा, सुख का नहीं। राजनीति सरल नहीं कठिन होती है। शिबू सोरेन पर भी हत्या जैसे गंभीर आरोप लगे। 2006 में उन्हें सज़ा हुई, पर बाद में वे बरी हो गए। लेकिन यह दौर उनके लिए न हार का कारण बना, न ही झुकने की वजह। वे हर बार और मज़बूती से लौटे.

ना टूटे, ना झुके: झारखंड आंदोलन के अगुवा शिबू सोरेन

झारखंड की धरती ने जिस आंदोलन को अपनी कोख से जन्म दिया, उसका सबसे तेजस्वी चेहरा बने शिबू सोरेन। 1987 में झारखंड मुक्ति मोर्चा की एक ऐतिहासिक जनसभा में उन्होंने अलग झारखंड राज्य की निर्णायक लड़ाई का बिगुल फूंका। यह केवल एक राजनीतिक घोषणा नहीं थी, यह एक संघर्षशील इतिहास का नया अध्याय था. 1989 में उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा देकर केंद्र सरकार को 30 मई तक झारखंड राज्य की मांग मानने का अल्टीमेटम दिया। यह साहसिक कदम बताता है कि वे सत्ता से नहीं, जनभावना से बंधे नेता थे. झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद के 180 में से 89 सदस्यों का साथ लेकर उन्होंने यह साबित किया कि आंदोलन केवल नारों से नहीं, संगठन और संकल्प से चलता है. झारखंड आंदोलन के जननायक शिबू सोरेन सिर्फ राजनीतिक योद्धा नहीं थे, वे एक दूरदर्शी समाज सुधारक भी थे. उनकी जनसभाओं में यह बात बार-बार गूंजती थी कि शिक्षा के बिना सामाजिक न्याय अधूरा है. उन्होंने आदिवासी बच्चों, विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा को प्राथमिकता दी. उनका मानना था कि अगर एक आदिवासी बच्चा शिक्षित होगा, तो वह साहूकारों, जमींदारों और शोषणकारी व्यवस्था को खुली चुनौती दे सकेगा. शिबू सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने कई पिछड़े इलाकों में स्कूलों और आदिवासी छात्रावासों की स्थापना को बढ़ावा दिया. उन्होंने शिक्षा को सिर्फ ज्ञान का साधन नहीं, बल्कि सशक्तिकरण का औज़ार माना. उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि आज झारखंड के दूरदराज़ क्षेत्रों में भी आदिवासी समुदाय शिक्षा की मुख्यधारा से जुड़ रहा है. उनकी सादगी, जमीनी जुड़ाव और शिक्षा को लेकर उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें न सिर्फ एक राजनीतिक नेता, बल्कि एक सामाजिक रचनाकार बना दिया। आज जब झारखंड के स्कूलों में आदिवासी बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं, तो कहीं न कहीं उसमें दिशोम गुरु शिबू सोरेन की सोच और संघर्ष की छाया ज़रूर दिखती है. झारखंड आंदोलन का यह नायक भले ही अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनका संघर्ष, साहस और संकल्प आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा और हिम्मत देता रहेगा.

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