शहर से गांव डगर तक की कहानी

जीटी रोड लाइव डेस्क 
किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच रिश्ते में अगर राजनीति पैर पसारने लगती है तो दोनों में आपसी खटास बढ़ जाती है। आम शिकायत है कि केन्द्रीय सत्ता के इशारे पर राजभवन काम करता है। लेकिन जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी तख़्त नशीं हुए हैं, तो ऐसी शिकायतों में इज़ाफ़ा ही हुआ है। और यदि राज्य में भाजपा का मुख्यमंत्री नहीं है तो सरकार की राह में राजभवन रह-रह कर अडंगा लगाना नहीं भूलता। सबसे अधिक परेशानी होती है जब राज्यपाल विधानसभा से पारित बिल रोक कर बैठ जाते हैं। राज्यपाल को लाट साहब कहने का चलन अपने देश में रहा है।  वे भूल जाते हैं कि उनके ऊपर भी कोई है। ऐसा हुआ तमिलनाडू के हालिया मामले में।  वहां के राज्यपाल रविन्द्र नारायण (आरएन) रवि ने दस बिल रोके रखा था। अब लाट साहब को सुप्रीम फटकार मिली है कि, तीन महीने से अधिक समय तक वे कोई बिल नहीं रोक सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत असाधारण शक्ति का इस्तेमाल करते हुए रोके गए सभी दस विधेयकों को उसी तिथि से पारित मानने का आदेश दिया, जब उन्हें राज्यपाल को भेजा गया था। बता दें कि अधिकांश बिल जनवरी 2020 से अप्रैल 2023 के बीच पास हुए थे। अधिकतर विधेयक राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित थे।
गुहार लगाने सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी तमिलनाडू सरकार 
तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार काफी दिनों से राज्यपाल आरएन रवि के बर्ताव से रुष्ट थी. आखिर उसे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा।  राज्यपाल ने 10 बिल रोक रखे थे। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने निर्णय में स्पष्ट कहा, राज्यपाल के पास कोई ‘ऑब्सल्यूट वीटो’ या ‘पॉकेट वीटो’ नहीं है। उन्हें राज्य मंत्रीपरिषद की सलाह पर काम करना होगा। विधेयक अनिश्चितकाल के लिए रोका नहीं जा सकता। राज्यपाल का फैसला गैरकानूनी और मनमाना है। राज्यपाल को विधायिका के कार्यों में रोड़ा नहीं बनना चाहिए। वे जनता की इच्छा को कुचल नहीं सकते।
जनता की इच्छा के विरुद्ध काम करना असंवैधानिक 
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि विधेयकों पर राज्यपाल निर्णय लेने में समयसीमा का पालन नहीं करते हैं तो अदालत उसकी न्यायिक समीक्षा कर सकती है। राज्यपाल को सियासी टकराव से परहेज़ करना चाहिए। उसकी भूमिका मार्गदर्शक और संयोजक की होनी चाहिए। राज्यपाल किसी भी राजनीतिक दल का प्रतिनिधि नहीं हो सकते हैं। जनता द्वारा निर्वाचित विधानसभा की इच्छा के विरुद्ध काम नहीं कर सकते हैं। राज्यपाल को विधानसभा द्वारा व्यक्त की गई लोगों की इच्छा का सम्मान करना चाहिए। उन्हें राजनीतिक उद्देश्य से विधानमंडल में अवरोध नहीं बनना चाहिए। जस्टिस पारदीवाला ने डॉ. आंबेडकर के उद्धरण का उल्लेख किया- संविधान चाहे कितना भी अच्छा हो, अगर इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं तो यह बुरा साबित होगा।
फटकार में क्या-क्या कोर्ट ने राज्यपाल को सुनाया 

सुप्रीम कोर्ट ने फटकार तो जमकर लगाईं है. और जो कहा है उसे उन राज्यपालों को भी सुनना चाहिए, जो केंद्र के इशारे पर काम करते हैं और उन राजनीतिक पार्टियों को भी सुनना चाहिए जो विपक्षी सरकारों को राजभवन के माध्यम से तंग करना चाहते हैं.  कोर्ट ने  कहा कि संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी कि राज्यपाल एक बुद्धिमान संवैधानिक प्रमुख होगा। मगर इस मामले में जो सामने आया वह उनकी कल्पना के विपरीत है। कोर्ट ने अपने निर्णय में साफ़-साफ़ कहा है कि राज्यपाल को एक से तीन महीने के भीतर विधेयक पर फैसला लेना होगा. अन्यथा विधानसभा को लौटाना होगा। राष्ट्रपति के पास अधिकतम एक माह के भीतर विधेयक भेजना होगा।

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