सुशांत झा
क्या भारत, पाकिस्तान के परमाणु हमले से डर गया? क्या उसे आशंका थी या इसके सबूत मिले थे कि चीन उत्तरी सीमा पर डिस्टर्बेंस करने वाला है? या वह जान-बूझकर इस लड़ाई को एक मुकाम तक पहुँचाने के बाद स्थगित करना चाहता था? मेरी मित्र-सूची में ज्यादातर भाजपा समर्थक लोग हैं और कुछ धुर भाजपाई हैं और सारे इस बात से निराश हैं कि जब हमारी सेना जीत रही थी तो सरकार ने लड़ाई रोक क्यों दी। एक 200 किलोमीटर की रफ्तार से चल रही कार पर अचानक ब्रेक लगाने से एक्सिडेंट होता है। क्या यह मोदी के राजनीतिक पतन की शुरुआत है? ये ऐसे सवाल हैं जो आम जनता की परसेप्शन से जुड़े हैं–भले ही इसकी सूक्ष्म राजनीतिक या सैन्य व्याख्याएँ क्यों न होती रहे। राजनय से जुड़े कुछ फैसले तो ऐसे होते हैं जो शायद दुनिया के सामने कभी नहीं आ पाते। नेटफ्लिक्स वेब सिरीज House of Cards में उसका मुख्य पात्र फ्रैंक अंडरवुड अपने एक सहयोगी से कहता है—‘You know, 90% of our job is in the dark; still you are trying to expose it’.
जहाँ तक परमाणु धमकी की बात है तो ये नया नहीं है–कारगिल के समय भी पाकिस्तान ने ये धमकी दी थी जब क्लिंटन ने वाजपेयी को फोन किया था और वाजपेयी ने कहा था कि “आप अभी से मान लीजिए कि भारत की आधी आबादी खत्म हो गई है लेकिन पाकिस्तान को संदेश दे दीजिए कि वह सुबह का सूरज नहीं देखेगा”। भारत ने पाकिस्तानी आतंकी ठिकानों पर हमला ही इसलिए किया था कि एटम ब्लफ को दुनिया के सामने लाया जा सके। क्योंकि एटम बम या इस्लाम के कारण उसे कश्मीर नहीं दिया जा सकता। हाँ ऐसी खबरें हैं—जो भारतीय और विदेशी दोनों स्रोतों से हैं–कि भारतीय वायुसेना ने जब उसके करीब दर्जन भर एयर बेस तबाह कर दिए तो पाकिस्तान में ऐसी अफवाह दिन भर उड़ती रही कि भारत अब उसके परमाणु ठिकानों को पंगु करने वाला है। ऐसी अफवाहें तब जोर से उठनी शुरू हुई जब भारत ने रावलपिंडी के पास उसके नूर खान बेस पर धमाका कर दिया। उसके बाद से पाकिस्तान में अफरातफरी मच गई और उसने अमेरिका से गुहार लगाई कि युद्ध रुकवा दे। लेकिन भारत को ऐसी क्या मजबूरी थी?
रही बात चीन के हस्तक्षेप की तो चीन भारत के साथ इस घड़ी में खुलकर सामने आता इसकी आशंका कम ही थी। वह पर्दे के पीछे भले पाकिस्तान का समर्थन करता रहा हो, लेकिन जिस आर्थिक भंवर में वह फंस रहा है, वैसे में भारत से खुलेआम दुश्मनी मोल लेना उसके लिए कठिन है। ट्रंप के टैरिफ वार से उसे परेशानी है और वहाँ की कंपनियाँ निवेश निकालकर बाहर और भारत जैसे देशों में ला रही है। पाकिस्तान में चीन का एयर डिफेंस सिस्टम भी नाकाम रहा जिससे उसकी तकनीकी ब्रांडिंग खराब हुई है। हाँ, यह युद्ध अगर लंबा चलता और पाकिस्तान कुछ जमीन खोने की स्थिति में आता तो हो सकता है चीन कुछ डिस्टर्बेंस करता–्क्योंकि कहा है कि ‘वह पाकिस्तान की एकता और अखंडता के समर्थन में है’। वैसी स्थिति अभी बनी नहीं थी। फिर भारत को क्या मजबूरी थी कि उसने अमेरिका की बात मान ली, जिस देश की छवि बहुत विश्वसनीय नहीं है। हालांकि कांग्रेस के एक महत्वपूर्ण और अनुभवी नेता पी चिदंबरम ने मोदी सरकार की युद्ध विराम के लिए और सीमित सैन्य कार्रवाई के लिए तारीफ की है और कहा है कि युद्ध को टालकर भारत ने अच्छा ही किया।
लेकिन ये बातें आम जनता नहीं समझती। उसे तो PoK से कम पर कुछ मंजूर ही नहीं है। जाहिर है ये दशकों का संचयित आक्रोष है जो प्रस्फुटित हो रहा है और नरेंद्र मोदी की निर्णायक और ठोस छवि से वह आक्रोष उद्दाम हो उठा था। जनता को लगता है कि अगर मोदी का नेतृत्व यह नहीं कर सकता तो राहुल गांधी या अन्य के नेतृत्व से क्या उम्मीद की जा सकती है? सोशल मीडिया पर कई लोग इंदिरा गांधी की तस्वीर साया कर इसकी तुलना बांग्लादेश युद्ध से कर रहे हैं जो उचित नहीं है। इसके कारण हैं। बांग्लादेश युद्ध, पूर्वी पाकिस्तान की स्वतंत्रता में मदद देने को किया गया था–जबकि इस बार ऐसा कोई पाकिस्तानी इलाका नहीं था जिसकी स्वतंत्रता हेतु भारत गया हो। वह आतंकी ठिकानों पर हमला करने गया था जिसमें वह सफल रहा। दूसरा, बांग्लादेश युद्ध से पहले श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने सोवियत संघ से 20-वर्षीय संधि कर अपने विदेश नीति की संप्रभुता लगभग बेच दी थी और पूरा हिंद महासागर सोवियत सेना के हवाले कर दिया था। आज का भारत वैसा नहीं कर सकता। हमने बांग्लादेश को आजाद कर पाकिस्तान को उचित ही बड़ा घाव दिया था, लेकिन कालांतार में बांग्लादेश हमारे लिए समस्या ही बनता गया। ऑपरेशन सिंदूर का मकसद कुछ आतंकी ठिकानों को नष्ट करना और पाकिस्तान को एक संदेश था जिसमें वह सफल रहा। उसका तात्कालिक मकसद पाकिस्तान को उसके नक्शे से “मिटाना” नहीं था–जैसा युद्ध के बढ़ते चरण में स्वाभाविक ही भारतीयों ने इच्छा की थी क्योंकि उनके मन में दशकों का आक्रोष था। भारत ने शुरू से ही साफ कहा था कि उसने नागरिक ठिकानों को निशाना नहीं बनाया है और अगर पाकिस्तान जवाबी कार्रवाई करता है तो हम उसका जवाब देंगे। इस युद्ध में यही हुआ।
रही बात पाकिस्तान पर कब्जा करने की–तो मेरी राय में वह एक कूटनीतिक रुख है–ताकि पाकिस्तान को कश्मीर पर दावा करने से रोका जा सके। भारत वैसे भी कश्मीर घाटी की 1 करोड़ आबादी को पूरी तरह अपने पक्ष में नहीं कर पाया है, ऐसे में POK की 55 लाख अतिरिक्त शत्रुवत आबादी को साथ में लाने और हमेशा के लिए विरोध-प्रदर्शन झेलते रहने का कोई तुक नहीं है। हाँ, POK के कुछ रणनीतिक महत्व के जगह पर भारत जरूर कब्जा करना चाहेगा जैसा कि उसने सियाचिन में किया था। क्या इससे भारतीय सुरक्षा बलों की श्रेष्ठता साबित हो पाई? निश्चय ही ऐसा हुआ और पाकिस्तान को बड़ा आघात लगा है। इसका सबूत तो उसकी “शांति की याचना” है जो उसके नेताओं ने ट्विटटर तक पर किया। एक सबूत ये भी है कि वहाँ के लोग युद्ध के रुकने से जश्न मना रहे हैं जबकि भारत के लोग दुखी हैं। यानी चोट तो पाक को गहरी लगी है। ये वैसा ही है जैसे पढ़ाई में बिल्कुल फिसड्डी लड़का इम्तिहान टल जाने से खुश होता है, जबकि भारत के संदर्भ में यह वैसा है कि पढाई में बहुत ही होशियार लड़का इम्तिहान के समय बीमार पड़ जाए।
इसकी संदर्भ से बाहर हटकर थोड़ी तुलना पिछले लोकसभा चुनाव के परिणाम से भी हो सकती है जब 99 सीटें जीतकर कांग्रेस खुशी से फूल उठी थी जबकि चुनाव जीतकर भी, 240 सीटों वाली बीजेपी में सन्नाटा था। एक सवाल रफाल विमान के प्रदर्शन पर भी था जिसे बहुत सारे अमेरिकी अखबार अनाम स्रोतों के हवाले से खराब करार दे रहे थे—ऐसा लगता है कि यह फ्रेंच बनाम अमेरिकी विमान निर्माता कंपनियों की पीआर लॉबी के लिखे लेख हैं। भारत ने फ्रांस से जो बड़े विमान के सौदे किए हैं, वह अमेरिका को और भारत में भी उस लॉबी के कुछ लोगों को शूल की तरह चुभा था और अमेरिकी मीडिया में युद्ध उद्योग का कितना पैसा लगा है–यह किसी से छुपी बात नहीं है। हकीकत यह थी कि चीन का एयर डिफेंस सिस्टम इस युद्ध में बुरी तरह एक्सपोज हुआ। भारतीय मिसाइल रावलपिंडी तक भेद आए लेकिन सिस्टम को कुछ पता नहीं चला। कुल मिलाकर भारत की सेना दुश्मन के घर में सेंध लगाकर, उसे तहस-नहस कर चली आई, उसका मनोबल कमजोर कर दिया–लेकिन उसने उसे घुटने पर नहीं झुकाया। राजनाथ सिंह ने कहा था कि हमने इस बार हनुमानजी की तरह काम किया है—‘लंका में आग लगाई, अक्षय कुमार को मारा और रावण को संदेश दे दिया’।
लेकिन जनता की उम्मीदें इतनी हैं कि उसने हनुमान को राम समझ लिया है। जनता इस बात से निराश है कि रावण का वध क्यों नहीं हुआ? क्या यह अवतार झूठा था और धर्म की रक्षा के लिए कोई नया अवतार चाहिए?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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