शहर से गांव डगर तक की कहानी

जीटी रोड लाइव डेस्क

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू (14 नवम्बर 1889-27 मई 1964) की चर्चा करते हैं गंगा के प्रति भी उनकी आस्था जग-ज़ाहिर है ऐसे में नेहरू का यह कथन स्मरण हो आता है नेहरू ने कहा था –”मैंने सुबह की रोशनी में गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है, और देखा है शाम के साये में उदास, काली सी चादर ओढ़े हुए, भेद भरी, जाड़ों में सिमटी-सी आहिस्ते-आहिस्ते बहती सुंदर धारा, और बरसात में दहाड़ती-गरजती हुई, समुद्र की तरह चौड़ा सीना लिए, और सागर को बरबाद करने की शक्ति लिए हुए। यही गंगा मेरे लिए निशानी है भारत की प्राचीनता की, यादगार की, जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ओर….‘गंगा तो विशेषकर भारत की नदी है, जनता की प्रिय है, जिससे लिपटी हैं भारत की जातीय स्मृतियां, उसकी आशाएं और उसके भय उसके विजयगान, उसकी विजय और पराजय। गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता का प्रतीक रही है, निशान रही है। सदा बदलती, सदा बहती, फिर भी वही गंगा की गंगा।”

नेहरू के बारे में जाने-माने पत्रकार राजेन्द्र माथुर ने लिखा 

जवाहरलाल नेहरू जैसा सिपाही यदि गांधी को आजादी के आंदोलन में नहीं मिलता, तो 1927-28 के बाद भारत के नौजवानों को अपनी नाराज और बगावती अदा के बल पर गांधी के सत्याग्रही खेमे में खींचकर लाने वाला और कौन था? नेहरू ने उन सारे नौजवानों को अपने साथ लिया जो गांधी के तौर-तरीकों से नाराज थे, और बार-बार उन्होंने लिखकर, बोलकर, अपनी असहमति का इजहार किया उन्होंने तीस की उस पीढ़ी को जबान दी जो बोलशेविक क्रांति से प्रभावित होकर कांग्रेस के बेजुबान लोगों को लड़ाकू हथियार बनाना चाहती थी लेकिन यह सारा काम उन्होंने कांग्रेस की केमिस्ट्री के दायरे में किया और उसका सस्मान करते हुए किया. यदि वे 1932-33 में सनकी लोहियावादियों की तरह बरताव करते, और अपनी अलग समाजवादी पार्टी बनाकर कांग्रेस से नाता तोड़ लेते, तो सुभाषचंद्र बोस की तरह कटकर रह जाते. उससे समाजवाद का तो कोई भला होता नहीं, हां, गांधी की फौज जरूर कमजोर हो जाती. गांधी से असहमत होते हुए भी नेहरू ने गांधी के सामने आत्मसमर्पण किया, क्योंकि अपने को न समझ में आने वाले जादू के सामने अपने को बिछा देने वाला भारतीय भक्तिभाव नेहरू में शेष था, और अपने अक्सर बिगड़ पड़ने वाले पट्ट-शिष्य से लाड़ करना गांधी का आता था. बकरी का दूध पीने वाला कोई सेवाग्रामी जूनियर गांधी तीस के दशक में न तो युवक हृदय सम्राट का पद अर्जित कर सकता था, और न महात्मा मोहनदास उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते थे, क्योंकि आंख पर पट्टी बांधकर लीक पर चलने वाले शिष्यों की सीमा महात्माजी खूब समझते थे. नेहरू और गांधी के इस द्वंद्वात्मक सहयोग ने आजादी के आंदोलन के ताने-बाने को एक अद्भुत सत्ता दी और गांधी का जादू नेहरू के तिलस्म से जुड़कर न जाने कौन सा ब्रह्मास्त्र बन गया. खरा और सौ टंच सत्य जब दूसरे सौ टंच सत्य के साथ अपना अहं त्यागकर मिलता और घुलता है, तब ऐसे ही यौगिक बनते हैं, जैसे गांधी और नेहरू के संयोग से बने. उनकी तुलना आज के राजनीतिक जोड़तोड़ से कीजिए, तो आपको फर्क समझ में आ जाएगा.

नेहरू से जुड़ी मेरी एक अनमोल याद -विनोद कोचर

बात अप्रैल1960की है। ग्यारहवीं बोर्ड को उन दिनों ‘प्री यूनिवर्सिटी’कहा जाता था जिसके बाद कालेज में प्रथम वर्ष में दाखिला मिलता था। मार्च में प्री यूनिवर्सिटी की परीक्षा देने के बाद, स्कूली बच्चों के लिए सरकार द्वारा आयोजित उत्तर भारत के पर्यटन टूर में अपने बाबूजी के मना करने के बाद भी, मैं दुकान के गल्ले से 200 रुपए चुराकर एक महीने के लिए घूमने चला गया तो बाबूजी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। जब लौटा तो बाबूजी ने ये फरमान सुनाकर मेरी सिट्टी पिट्टी गुम कर दी कि अब मैं आगे नहीं पढ़ सकतामुझे मेरे सारे सपने चूर चूर होते नजर आने लगे तो मुझे याद आई,बच्चों से प्यार करने वाले चाचा नेहरू की जो तब भारत के प्रधानमंत्री भी थे। तब मेरी उम्र 17 साल से भी कुछ कम ही थी। मैंने 29 अप्रैल 1960 को, एक पत्र लिखकर उनसे निवेदन किया कि वे मेरी मदद करें ताकि मैं आगे पढ़ सकूं! मुझे मेरे पत्र का तुरंत ही,9मई को, नेहरू जी के निजी सचिव श्री वेदप्रकाश द्वारा लिखे पत्र से जवाब मिला कि उचित कार्रवाई के लिए मेरा पत्र मध्यप्रदेश सरकार को भेजा जा रहा है।

 

जून1960 में मेरा परीक्षा परिणाम घोषित हुआ तो पूरे मध्यप्रदेश (वर्तमान छत्तीसगढ़ सहित)से मेरिट में उत्तीर्ण 25छात्रों में , 8वें नंबर पर मेरा भी नाम जब अखबारों के पहले ही पेज पर छपा तो बाबूजी के पास मेरी इस सफलता के लिए बधाई देने वालों का तांता लग गया और बाबूजी का गुस्सा भी काफूर हो गया तो उन्होंने मेरी आगे की पढ़ाई के लिए हरी झंडी दिखा दी। विशेष योग्यता से उत्तीर्ण होने के कारण जबलपुर के उस समय के सर्वश्रेष्ठ साइंस कॉलेज सेंट एलॉयसियस में मेरा दाखिला भी हो गया और मैं नेहरूजी को लिखे पत्र की बात भूल गया।। तभी एक दिन कालेज के प्राचार्य ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाकर मुझसे पूछा कि क्या मैंने प्राइममिनिस्टर को कोई पत्र लिखा था?फिर उन्होंने जब मुझे बताया कि उनके निर्देश पर मध्यप्रदेश सरकार ने मेरी छात्रवृत्ति स्वीकार करते हुए मेरे लिए60रुपये महीने के हिसाब से9महीनों की छात्रवृत्ति के540रु भेजे हैं। मेरी तो खुशियों का ठिकाना नहीं रहाआज की पीढ़ी उन दिनों के 540 रुपयों का मोल नहीं जानती इसलिये बता दूं कि भोजनालय में दोनों समय भोजन करने का मेरा मासिक खर्च30रुपये और मेरे रहने के कमरे का मासिक किराया था10 रुनेहरूजी के निजी सचिव द्वारा मुझे 9मई1960 को लिखा गया पोस्टकार्ड समय के 65 साल के थपेड़ों से जर्जर हो जाने के बावजूद, उसे मैंने अब तक संभाल कर रखा है जिसे मित्रों के साथ शेयर करते हुए, मैं खुशी महसूस कर रहा हूँ।

इन 65 सालों में जिंदगी आरएसएस की हिन्दूराष्ट्रवादी संकीर्ण और घृणा फैलाऊ राजनीति में अपनी जोशीली जवानी के14साल बर्बाद करने के बाद विगत करीब49 सालों से,गांधी-लोहिया-जयप्रकाश- सुभाष-अंबेडकर वादी समाजवादी विचारधारा को ,कुछ वर्षों तक सक्रिय राजनीति के बाद, अब मुख्यतः लेखन मनन में ही बीत रही है। नेहरूजी और उनके पूरे खानदान के खिलाफ, वैसे तो1925से ही आरएसएस परिवार नफरत का जहर फैला रहा है लेकिन पिछले 11सालों से, केंद्र में इनकी हुक्मरानी के दुर्भाग्यपूर्ण दौर में तो, नेहरू के खिलाफ नफरत का और झूठे आरोपों का तो जैसे सैलाब ही उमड़ पड़ा हैऐसी विषम परिस्थिति में नेहरूजीे का, बच्चों की शिक्षा के प्रति ऐसा उत्साहवर्धक सहयोग,मैंने स्वयं अपने छात्र जीवन में महसूस किया है। शिक्षा के प्रति मोदीजी का नजरिया और बजट में, शिक्षा खर्च में कटौती ही कटौती करने वाला उनका राजनीतिक कर्म उन्हें नेहरूजी के बरक्स बेहद बौना साबित करता है।
बकौल शायर:-
बरगद पर उंगलियां उठा रहे हैं,
गमलों में उगे हुए लोग

— 

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version