कर्मेन्दु शिशिर
समाजवादियों में शुरू से दो धाराएँ थीं। एक साम्यवादियों की ओर झुकी हुई और दूसरी हिन्दुवादी वर्चस्ववादियों की ओर। विभाजन के बाद कांग्रेस ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए कोई शैक्षणिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक ढाँचा/ मैकेनिज्म तैयार नहीं किया। मुस्लिम समाज को कट्टरपंथ बनने के लिए शरियत बोर्ड, वक्फ बोर्ड मदरसा शिक्षा और अशराफ मुस्लिम को ऊँचे पद देकर उसे आधुनिक धारा के करीब लाये या गंगा यमुनी तहजीब से दूर किया ? उसे सर सैय्यद के अलीगढ़ आधुनिक शिक्षा आंदोलन से जोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ाया ?
हिन्दुवादी ताकतों को मान लिया गया कि वह कहाँ जायेगा, मान लिया वह सहिष्णु है और उसे ऐसा होना ही होना है। जो हम करें उसे मानना ही मानना है। हम उसे आलोचना,उपेक्षा और क्रश करके काबू में कर लेंगे।लेकिन वह चुपचाप खूंखार होता गया और तैयारियाँ करता रहा। मौके की प्रतीक्षा करता रहा। आज सब हालात बदले तो सबके अपने-अपने तर्क के पंख निकल आये। पिछड़ी और दलित जातियों ने अपनी भागीदारी की उचित-अनुचित स्थिति को समझा। प्रतीक्षा लंबी हुई तो जिन्न बोतल से बाहर आया। कांग्रेस चकरा गई। वह आंबेडकर के विकल्प में जगजीवन बाबू को लाकर इस हल के बाद से आराम कर रही थी। जगजीवन बाबू को भी अंत में बेवकूफ बनाया। वे कांग्रेस से बाहर हुए। आंदोलन के बाद प्रधानमंत्री बनने का तार्किक अवसर था तो जेपी भी कम घाघ नहीं निकले।उनको प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया।दलित हो दलित ही रहो।
आजादी के मूल्यों की एक ही ने अवहेलना थोड़े की है ? कांग्रेस देश को बताती रही सिर्फ उसी के कारण देश आजाद हुआ। अब आजादी के बाद मलाई खाने का अधिकार सिर्फ उसी को है और कुछ कांग्रेसी खानदानों को है। विजनरी नेतृत्व एक परिवार ही पैदा कर रहा था। देश देख रहा था यूरोप से कलम लाकर उस परिवार में रोप दो, विजन वाला नेतृत्व प्रकाशमान हो उठा। अब बात फिर वही उसको बनाये रखने का है। बनाये रखने वाले असल कांग्रेसी,असल धर्मनिरपेक्ष और असल देशभक्त!
आजादी के 17 साल तक आपने देखा कि देश की सोच,संस्कृति और शिक्षा व्यवस्था को किस दिशा में बलात मोड़ा गया और बलात किस दिशा से देश को दूर किया गया ? आपने हिन्दू-मुस्लिम एकता और भारतीय सोच और संस्कार के अनुरूप कोई मौलिक बौद्धिक तंत्र विकसित किया ? गंगा-यमुनी धारा थी या काल्पनिक थी मगर आजादी के सपने और आकांक्षा में जब वह सोच शामिल थी तो इस पर सोचना हर हाल में अनिवार्य था।इसकी उपेक्षा कर अंग्रेजों की तरह बाँटो और राज करो की पद्धति अपनाई गई। आज वही देश का आदर्श बन गया है।येन-केन बहुमत का वर्चस्ववाद हासिल करना।
हमने वह सब नहीं किया जैसा सोवियत रूस ने किया था। एक मौलिक धर्मनिरपेक्ष और समानता के समाज वाले भारत का निर्माण। हमारे नवजागरण के आदर्शों और सपनों के अनुरूप भारत को शिल्पित करने का उपक्रम। नहीं , हम भारत को अमेरिका-यूरोप की घटिया कार्बन कापी बनाने में लग गये।देश को गटर बना डाला ।आप शुरू से आज तक अमेरिका-यूरोप की चड्डी ही धोते रहे।आपने पिछली कतार के लिए खुद को तैयार किया। अब रोना धोना व्यर्थ है।
अब इसका अगला परिणाम भुगतिये। आपसी मारकाट और फिर से विभाजन। फेसबुक पर पुष्पेन्द्र कुमार जी के एक पोस्ट में यह ध्वनि निकलती है कि समाजवादी मदद कर सोचे। यह वाहियात का आदर्शवाद है। कितनी सफाई से आप सबने कांग्रेस के घृणित परिवारवाद को छिपा लिया है,सोनिया और राहुल जैसे को आपके तर्कों से पराजित होकर देश सहन करे और मुलायम जी या लालू जी के परिवारवाद को कहा जाय,बबुआ जी मान जाइये। भाजपाई को भगाइये और कांग्रेस को बैठाइये। कितने दिन तक बुद्धिजीवी भूखे प्यासे बिना पद के रहेंगे ?कैसे और क्यों हिन्दुवादी और मुस्लिमवादी सांप्रदायिकता गहरी हुई? इस पर बिना विचार किए आप मुलायम जी, लालू जी या मायावती जी से आत्मसमर्पण चाहते हैं? मतलब आपसे चालाक देश में कोई और नहीं ?इस पर विचार मत कीजिएगा,भेद खुलने का भय है। सच्चाई को कोई फेस करना नहीं चाहता। बुद्धिजीवी स्वतंत्र होकर सोच ही नहीं रहा है।वह किसी न किसी वर्चस्ववादी ताकत का प्रवक्ता होकर ही सोच रहा है। उसके भीतर लोभ लबालब भरा है लूटने वाले राजनेताओं और पतित पूँजीपतियों और पापिष्ट अधिकारियों की तरह। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जैसे लगते हैं। इसलिए जनता पर उसका कोई असर ही नहीं पड़ता। जनता दुखी है,परेशान भी है। बदलाव भी चाहती है लेकिन ऐसे भेष वाले बुद्धिजीवियों पर उसे तनिक भरोसा नहीं। वह अपने बुद्धिजीवी की प्रतीक्षा कर रही है।ऐसे कि जो सबके समावेशन का विचार लेकर आये।जो चीख कर,गुस्साकर और उत्तेजित होकर नहीं,गाँधी,लोहिया या आंबेडकर की तरह गहन,गंभीर होकर अपनी बात कहे। हर तबके की शंकाओं का उचित उत्तर देकर उसे संतुष्ट करे।देश है,इसे बचना है तो एक न एक दिन ऐसा बुद्धिजीवी जो विजनरी और ईमानदार हो,सचमुच का समावेशी, सचमुच का धर्मनिरपेक्ष और सचमुच का देशभक्त होगा ,जरूर आयेगा। नहीं देश का भविष्य–नीम हकीम खतरे जान वाला होना ही होना है।
आज किसी को हिन्दू राज चाहिए, किसी को मुस्लिम आजादी, किसी को खालिस्तान तो कोई पीडीए का समाज चाहता है । अगर कल इसमें से कोई अलग भूभाग माँगे तो इसमें आश्चर्य कैसा? कदम जब खाड़ी की ओर बढ़ा ही दिए हैं तो समतल की बात मत कहिए।
(लेखक हिंदी के सम्मानित आलोचक हैं। कई दर्जन किताबें प्रकाशित ।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।