शहर से गांव डगर तक की कहानी

रांची. झारखंड में पेसा क़ानून क्यों नहीं हो पा रहा लागू, इस रपट में समझिये पूरा मामला.  संसद ने 1996 में पेसा एक्ट को पारित किया था और राष्ट्रपति की अनुमति के बाद यह कानून बना. जिन इलाकों में आदिवासियों की संख्या ज्यादा है वहां इसे लागू किया जाना है. पांचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्रों के लिए ही यह क़ानून है. देश के आठ राज्यों में यह क़ानून लागू है. जिनमें आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और तेलंगाना राज्य शामिल हैं. लेकिन झारखंड और ओडिशा के आदिवासी इसके लाभ से वंचित हैं.  सात माह पहले झारखंड हाईकोर्ट ने सरकार को पेसा क़ानून को दो महीने के भीतर लागू करने का निर्देश दिया.  अदालत  ने पंचायती राज अधिनियम और सरकार द्वारा प्रस्तावित पेसा क़ानून  की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह आदेश जारी किया है. उन दिनों सरकार के सम्मुख कई राजनीतिक उलझनें शायद हावी रहीं,  लेकिन जब हेमंत सोरेन की अगुवाई में महा गठबंधन की दूसरी बार सरकार बनी तो इसको लागू करने को लेकर सक्रियता बढ़ी.  दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि हाईकोर्ट के चाबुक से जागी सरकार, लागू होगा पेसा क़ानून.  पक्ष और विपक्ष में अलग अलग तर्क भी दिए जाने लगे हैं. यहाँ हम सभी बिन्दुओं पर विचार करने का प्रयास करेंगे.

पेसा क़ानून का उद्देश्य क्या है

दरअसल इसका मूल मक़सद आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन को मजबूत बनाना है. आज भी देश का यह बड़ा तबक़ाआर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ है. संविधान के अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए ग्राम पंचायतों को मज़बूत करना ताकि इन क्षेत्रों का परम्परा और संस्कृति का संरक्षण करते हुए विकास किया जा सके. ग्रामसभा मज़बूत बने. आदिवासियों की पारंपरिक प्रथाओं के अनुसार प्रशासनिक ढांचा विकसित हो. पेसा क़ानून प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के नियंत्रण  की वकालत करता है.

क्या होगा आदिवासियों को फ़ायदा

पेसा क़ानून जब धरातल पर उतरेगा तो सबसे अधिक लाभ ग्रामीण आदिवासियों  को होगा.  ग्राम प्रधान को प्रशासनिक कार्यों से संबंधित तमाम अधिकार प्राप्त होंगे. उसके पास उपायुक्त के बाद सबसे अधिक अधिकार होंगे. ग्राम सभा काफी मजबूत होगी, ग्राम सभा आदिवासियों के पारंपरिक रीति-रिवाजों के अनुसार काम करेगी. सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए योजनाओं को मंजूरी ग्राम सभा ही देगी. विकास योजनाओं के लिए यदि अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण की ज़रूरत पड़ी तो ग्राम सभा या पंचायतों से मंज़ूरीलेनी होगी.

आदिवासियों के बीच से ही क्यों उठ रहे विरोध के स्वर

राज्य में नए कलेवर में पेसा क़ानून का विरोध करने वालों में सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग का नाम सबसे चर्चोइत है.  उनका कहना है कि वे पेसा के विरोधी नहीं. पंचायती राज अधिनियम का इसमें घालमेल के विरोधी हैं. कहते हैं कि 1996 में पेसा एक्ट पास होने के समय राज्य सरकारों को एक साल के अंदर अपनी–अपनी नियमावली बना लेने को यह कहा गया था. झारखंड का गठन हुआ नहीं था. अविभाजित बिहार में नियमावली नहीं बनी. जब 2001 में झारखंड अलग राज्य बना तो पंचायती राज अधिनियम पूरे राज्य में लागू कर दिया. जबकि अनुसूचित क्षेत्रों में पेसा एक्ट लागू करना चाहिए था. पंचायती राज अधिनियम में पेसा एक्ट के कुछ प्रावधान शामिल करके घालमेल कर दिया गया है, इसलिए विरोध हो रहा है. पेसा एक्ट पूरे झारखंड में लागू नहीं किया जा सकता है, लेकिन अनुसूचित क्षेत्रों में इसे लागू किया जाना चाहिए. इधर, सरकार का पक्ष रखते हुए पंचायती राज विभाग, की डायरेक्टर निशा उरांव का कहना है कि अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायती राज अधिनियम लागू करना कहीं से भी असंवैधानिक नहीं है. झारखंड में जो भी पेसा रूल बना है वह पेसा एक्ट, 1996 के तहत ही बना है, इसमें अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई है. अगर किसी को कोई आपत्ति है तो उन्हें अपनी आपत्ति लिखित रूप में दर्ज करानी चाहिए, हम उसे कानून मंत्रालय के पास भेजेंगे.

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