शहर से गांव डगर तक की कहानी

जीटी रोड लाइव डेस्क 

फ़िलिस्तीन की ग़ज़ा पट्टी में पिछले डेढ़ सालों से एक भयानक क़त्लेआम जारी है। इज़रायली हमलों में अब तक 50 हज़ार से भी ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं और एक लाख से ज़्यादा लोग ज़ख़्मी हुए हैं जिनमें से अधिकांश बच्चे, औरतें, बुजुर्ग एवं आम नागरिक हैं। दो महीने के युद्धविराम के बाद इज़रायल ने बिल्कुल एकतरफ़ा ढंग से इस जंग को फिर से शुरू कर दिया है। इज़रायली बमबारी में लाखों फ़िलिस्तीनी लोगों के घर-बार, उनकी आजीविका, स्कूल तथा अस्पताल तबाह हो चुके हैं, वहाँ पीने के पानी की ज़बर्दस्त क़िल्लत है और लोगों की बुनियादी ज़रूरतों जैसे भोजन, दवाओं और ईंधन का भी भीषण अभाव है। इज़रायल ने बिजली समेत जीवन के लिए आवश्यक हर चीज़ को ग़ज़ा में पहुँचने से रोक दिया है। यह इक्कीसवीं सदी का सबसे भीषण मानवीय संकट है। कोई भी संवदेनशील इंसान इस मानवीय संकट से विचलित हुए बिना नहीं रह सकता। सवाल यह उठता है कि इस विनाशकारी ख़ून-ख़राबे की वजह क्या है?

बहुत-से लोग इज़रायल-फ़िलिस्तीन विवाद को मज़हबी चश्मे से देखते हैं और मानते हैं कि यह यहूदियों और मुसलमानों के बीच की जंग है जो सदियों से चली आयी है। कुछ लोग इसे आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे इस मसले को मुसलमानों की तथाकथित “कट्टरता” से जोड़कर देखते हैं। उन्हें लगता है कि फ़िलिस्तीन के लोग और ख़ासकर हमास आतंकी कार्रवाइयों में लिप्त रहे हैं और इज़रायल को इन आतंकी कार्रवाइयों के जवाब में अपनी आत्मरक्षा में यह युद्ध छेड़ना पड़ा है। इस प्रकार इस नरसंहारक युद्ध को जायज़ ठहराया जाता है। लेकिन किसी भी तार्किक इंसान को इस मसले पर अपनी राय बनाने से पहले इतिहास के तथ्यों की रोशनी में इन दावों की पड़ताल करनी चाहिए। आइए देखते हैं कि इन दावों में कितना दम है।

क्या यह यहूदियों और मुसलमानों के बीच का धार्मिक विवाद है?

अगर हम फ़िलिस्तीन के मसले को गहराई से समझने का प्रयास करें और उसके इतिहास पर नज़र दौड़ाएँ तो पाएँगे कि इसका इस्लाम और यहूदी धर्म के बीच की टकराहट से कोई वास्ता नहीं है। कम लोग ही यह जानते हैं कि फ़िलिस्तीनी अरब लोगों में केवल मुसलमान ही नहीं हैं बल्कि उनमें ईसाई, यहूदी और बद्दू कबीलों के लोग भी शामिल हैं। ऐसा भी नहीं है कि फ़िलिस्तीन की आज़ादी की लड़ाई में केवल मुसलमान ही शामिल रहे हैं। फ़िलिस्तीनी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के बड़े नेताओं में से एक जॉर्ज हबाश और प्रख्यात फ़िलिस्तीनी अकादमिक और बुद्धिजीवी एडवर्ड सईद ईसाई परिवारों से आते थे। इसी प्रकार यह भी सच नहीं है कि सभी यहूदी इज़रायल का समर्थन करते हैं। आपने मीडिया में देखा होगा कि इज़रायल के ख़िलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों में बहुत-से रब्बी यानी यहूदी पादरी समेत यहूदियों की भारी आबादी भी शामिल होती है। अमेरिका में यहूदियों की एक बड़ी संस्था ‘ज्यूइश वॉइस फ़ॉर पीस’ इज़रायल के सख़्त ख़िलाफ़ है और इसके सदस्य इज़रायल की आधिकारिक उपनिवेशवादी व साम्राज्यवादी विचारधारा ज़ायनवाद को यहूदी धर्म का कट्टर दुश्मन मानते हैं। फ़िलिस्तीन के मसले पर एक संक्षिप्त निगाह में ही यह दिख जाता है कि यह धार्मिक मसला, या यहूदियों व मुसलमानों के बीच के टकराव का मसला न तो कभी था और न ही आज है।

संक्षेप में, न तो फ़िलिस्तीन का मसला कभी धर्म का मसला था और न ही यह आज है। यह एक ग़ुलाम बनाये गये मुल्क की आज़ादी के लिए जारी लड़ाई है। ग़ौरतलब है कि फ़िलिस्तीनी जनता के दुश्मन भी वही पश्चिमी साम्राज्यवादी हैं, जिन्होंने हमारे देश को 200 वर्षों तक ग़ुलाम बनाकर रखा था और लाखों की संख्या में हमारे लोगों का क़त्लेआम किया था।

क्या इज़रायल अपनी आत्मरक्षा कर रहा है?

इस सवाल का जवाब देने के लिए हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि 1948 के पहले इज़रायल का कोई नामोनिशान नहीं था। आज जिस ज़मीन के टुकड़े को इज़रायल कहा जाता है वहाँ 1948 के पहले मुसलमान, यहूदी, ईसाई फ़िलिस्तीनी अरब लोग सैकड़ों सालों से रहते आए थे। उनकी अपनी एक फलती-फूलती सभ्यता और संस्कृति की जीती-जागती विरासत थी। सातवीं सदी में इस्लाम के उदय से सैकड़ों साल पहले ही यहूदियों को पहले बेबिलोनियन और फिर रोमन शासकों ने फ़िलिस्तीन से खदेड़ दिया था। इसके बाद से वे यूरोप के विभिन्न हिस्सों में रहने लगे थे। उनकी राष्ट्रीयता, भाषा, संस्कृति, सभ्यता सबकुछ यूरोपीय हो चुकी थी। जो यहूदी जिस देश में रहता था, उस देश की ही भाषा बोलता था, उसी की संस्कृति का अंग था, उसी राष्ट्र का सदस्य था। तो फिर इज़रायल कैसे अस्तित्व में आया? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी की शुरुआत के इतिहास पर एक नज़र दौड़ानी होगी।

आधुनिक काल में यूरोप के पूँजीवादी देशों में यहूदी धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ ज़बर्दस्त भेदभाव और उत्पीड़न हो रहा था। यहूदी-विरोधी मानसिकता को एण्टी-सेमिटिज़्म का नाम दिया जाता है। इसी दौर में, यहूदियों की नस्ली श्रेष्ठता की सोच पर आधारित ज़ायनवाद की नस्लवादी राजनीतिक विचारधारा का जन्म हुआ। ज़ायनवादियों ने यूरोपीय देशों के भीतर एण्टी-सेमिटिज़्म से लड़कर यहूदियों को बराबरी का दर्जा दिलाने की बजाय किसी अन्य स्थान पर यहूदियों का अपना अलग राज्य बनाने की माँग उठायी। इस विचारधारा के जनक लोगों के ब्रिटिश व पश्चिमी साम्राज्यवादियों और यहाँ तक कि यहूदियों का यूरोप में क़त्लेआम करने वाले नात्सियों तक से रिश्ते थे। ज़ायनवादियों के भावी राज्य के पीछे किसी राष्ट्र/क़ौम का आधार नहीं था। क्योंकि यहूदी इस रूप में कोई राष्ट्र/क़ौम नहीं थे जिनका एक साझा इतिहास, एक साझा क्षेत्र, एक साझा अर्थतन्त्र, एक साझी भाषा हो। लेकिन ज़ायनवादियों व पश्चिमी साम्राज्यवादियों के बीच के षड्यन्त्र के तहत यहूदी राज्य बनाने की परियोजना पर काम होने लगा और इसके लिए उन देशों के बारे में सोचा जाने लगा, जिनसे जगह-ज़मीन हथियाकर यूरोपीय यहूदियों के लिए एक राज्य बनाया जाये।

यहूदियों को बसाने के लिए फ़िलिस्तीन को चुना गया 

उस समय की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताक़त ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अपने राजनीतिक व सामरिक हितों के मद्देनज़र यहूदियों को बसाने के लिए अन्तत: फ़िलिस्तीन को चुना। फ़िलिस्तीन सुएज़ नहर से क़रीब था और पश्चिम एशिया के द्वार पर स्थित था और उसका सामरिक महत्व फ़ारस की खाड़ी में तेल की खोज होने के बाद से और बढ़ गया था। फ़िलिस्तीन को चुनने के पीछे एक कारण यह भी था कि कई यहूदी अपनी धार्मिक आस्था की वजह से यूरोप से फ़िलिस्तीन की ओर पलायन करने को तैयार हो सकते थे। ज़ायनवादियों ने यहूदियों के बीच यह झूठ फैलाया कि फ़िलिस्तीन एक ऐसी ख़ाली ज़मीन है जहाँ कोई नहीं रहता और वह यहूदियों के लिए मुफ़ीद है जिनकी अपनी कोई ज़मीन नहीं थी। लेकिन सच तो यह था उस ज़मीन पर फ़िलिस्तीनी यहूदी, मुसलमान, ईसाई लोग सैकड़ों सालों से रहते आये थे। इज़रायल तभी अस्तित्व में आ सकता था जब स्थानीय लोगों को उनकी ज़मीन से बेदख़ल किया जाता। यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सरपरस्ती के बिना मुमकिन नहीं था। 1917 में बाल्फ़ोर घोषणा के ज़रिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने फ़िलिस्तीन में यहूदियों का अपना ‘होमलैण्ड’ बनाने की ज़ायनवाद की औपनिवेशिक परियोजना को अपनी औपचारिक मंजूरी दे दी।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब फ़िलिस्तीन पर ब्रिटिश उपनिवेशादियों ने अपना क़ब्ज़ा जमाया उसके बाद से योजनाबद्ध ढंग से यहूदियों के आप्रवासन को प्रोत्साहित किया गया। शुरुआत में तो फ़िलिस्तीनियों ने यहूदी आप्रवासियों का स्वागत किया और यूरोप में उनके ऊपर हो रहे ज़ुल्मों की वजह से उनके साथ हमदर्दी रखते हुए उन्हें अपने देश में पनाह दी। परन्तु जल्दी ही ये आप्रवासी ब्रिटिश साम्राज्यवाद की मदद से अपने आतंकी संगठन बनाकर स्थानीय फ़िलिस्तीनियों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने लगे। 1948 में फ़िलिस्तीनियों के भयंकर क़त्लेआम को अंजाम दिया और उन्हें बन्दूक़ की नोक पर अपनी ही ज़मीन से बेदख़ल करके इज़रायल की स्थापना हुई। क़रीब 10 लाख फ़िलिस्तीनी बेदख़ल होकर पश्चिमी एशिया के अन्य देशों में शारणार्थी बनने को मजबूर हो गए। उनके खेतों, बाग़ों, कारख़ानों, मकानों और सम्पत्तियों पर ज़ायनवादियों का क़ब्ज़ा हो गया। फ़िलिस्तीन के लोग आज भी अपने देश पर आयी इस महाविपदा को नक़बा के नाम से याद करते हैं। इस मसले का विस्तृत इतिहास जानने के लिए पाठक इज़रायली यहूदी इतिहासकार इलान पापै की किताबें ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ मॉडर्न पैलेस्टाइन’ और ‘द एथनिक क्लेंजिंग ऑफ़ पैलेस्टाइन’ पढ़ सकते हैं। वास्तव में, इज़रायल कोई देश या राष्ट्र नहीं है, बल्कि पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा फ़िलिस्तीनी जनता के विस्थापन और हत्या पर टिकी औपनिवेशिक बस्ती है। वह अपनी आत्मरक्षा नहीं कर रहा है, बल्कि फ़िलिस्तीनी जनता अपनी मुक्ति के लिए लड़ रही है। इतिहास 7 अक्टूबर 2023 से नहीं शुरू हुआ था। उसके पहले से ही क़रीब आठ दशकों से इज़रायली सेटलर औपनिवेशिक परियोजना फ़िलिस्तीनियों की हत्या, विस्थापन, दमन और उत्पीड़न को अंजाम दे रही थी।

क्या फ़िलिस्तीनी लोग आतंकी कार्रवाइयों में लिप्त रहे हैं?

फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर पश्चिमी साम्राज्यवादी ज़ायनवादियों के जबरन क़ब्ज़े को चुपचाप सहने के बजाय उसके ख़िलाफ़ फ़िलिस्तीनी लोग 1930 के दशक से ही लड़ रहे हैं। यह उनकी आज़ादी की लड़ाई है, ठीक उसी प्रकार जैसे भारत में भी हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों व ईसाइयों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थी। फ़िलिस्तीन के पास अपनी कोई थल सेना, वायु सेना या नौसेना नहीं है। उनके पास पत्थर, गुलेल, रॉकेट, बन्दूक़ या जो कुछ भी है वे उसके साथ लड़ रहे हैं। बेशक इस लड़ाई में उन्होंने हिंसा का भी सहारा लिया है। परन्तु क्या अपने देश को आज़ाद कराने और साम्राज्यवादियों द्वारा हिंसा, अपमान, घेरेबन्दी के विरुद्ध लड़ने के लिए हिंसा का सहारा लेने को आतंकवाद कहा जा सकता है? अगर हाँ तब तो हमें भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, चन्द्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकुल्लाह ख़ाँ और खुदीराम बोस जैसे क्रान्तिकारियों को भी आतंकवादी कहना पड़ेगा क्योंकि उन्होंने भी हमारे देश को आज़ाद कराने के लिए हिंसा का सहारा लिया था। यही नहीं, हमें 1857 में हुए भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर भी आतंकवाद का ठप्पा लगाना पड़ेगा क्योंकि उसमें भी हमारे देश के स्वतंत्रता संग्रामियों ने हिंसा की थी। दुनियाभर में उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ जो लड़ाइयाँ हुई हैं उनमें अपने देश को आज़ाद कराने के लिए लोगों ने औपनिवेशिक ताक़तों के ख़िलाफ़ हिंसा का सहारा लिया है। कोई सिरफिरा आदमी ही आज़ादी की इन लड़ाइयों को आतंकवाद के रूप में पेश करेगा। यह पश्चिमी साम्राज्यवाद और उसके मीडिया का और दुनिया भर के हुक़्मरानों का तरीक़ा है : अगर किसी देश पर बम बरसाने हैं, उस पर हमला करना है, उस पर कब्ज़ा करना है, तो उसे आतंकवादी क़रार दे दो। पहले भी साम्राज्यवादियों ने सभी देशों में आज़ादी के लिए लड़ने वाले मुक्तियोद्धाओं का आतंकवादी क़रार दिया था। जिससे वे आतंकित होते हैं, उसे वे आतंकवादी कह देते हैं, ताकि उनके दमन-उत्पीड़न को जायज़ ठहराया जा सके।

इज़रायल दशकों से नरसंहार और नस्ली सफ़ाये की नीति पर अमल करता आया

फ़िलिस्तीन के मामले में असली आतंकवादी तो ज़ायनवादी इज़रायल और उसको शह देने वाले पश्चिमी साम्राज्यवादी हैं जिनकी मदद से इज़रायल दशकों से भीषण रक्तपात, नरसंहार और नस्ली सफ़ाये की नीति पर अमल करता आया है। हमने ऊपर देखा था कि किस प्रकार इज़रायल की बुनियाद में ही ख़ून-ख़राबा, नस्ली सफ़ाया, जबरन क़ब्ज़ा और विस्थापन की त्रासदी मौजूद है। फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा करने के लिए यहूदी सेटलरों के बीच से ज़ायनवादियों ने हैगनाह, इरगुन और लेही जैसे आतंकवादी संगठनों को खड़ा किया था। 1948 में इज़रायल बनने के बाद इज़रायली सेना का गठन उपरोक्त ज़ायनवादी आतंकी संगठनों के विलय से हुआ था। तब से इज़रायल की आतंकवादी कार्रवाइयाँ बढ़ती ही गयी हैं। जायनवादी सेटलर औपनिवेशिक परियोजना 1948 में इज़रायल की स्थापना के साथ मुकम्मल नहीं हुई बल्कि वह आज तक जारी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवादी दुनिया का नया चौधरी अमेरिका अपने साम्राज्यवादी हितों को साधने के लिए इस परियोजना को समर्थन देता आया है। 1967 में छह दिनों के युद्ध के बाद इज़रायल ने अमेरिकी सैन्य मदद की बदौलत ग़ज़ा पट्टी, वेस्ट बैंक, पूर्वी यरूशलम सहित कई अन्य क्षेत्रों पर भी अपना क़ब्ज़ा जमा लिया। उसके बाद भी इज़रायल ने फ़िलिस्तीनियों के नस्ली सफ़ाये की नीति पर अमल करते हुए तमाम नरसंहारों को अंजाम दिया है और मौजूदा नरसंहार इस श्रृंखला की नवीनतम कड़ी है। इस प्रकार 1948 में जो नक़बा शुरू हुआ था वह आज तक जारी है।

फ़िलिस्तीनी जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाले एक जुझारू संगठन हमास

हमास की शुरुआत 1987 में मिस्र की इस्लामिक कट्टरपंथी संस्था मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा के रूप में हुई थी। यह वही समय था जब फ़िलिस्तीन पर इज़रायली क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ वहाँ के लोगों ने पहले इंतिफ़ादा (जनबग़ावत) की शुरुआत की थी। उस वक़्त फ़िलिस्तीन मुक्ति संघर्ष का नेतृत्व फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (पीएलओ) जैसे धर्मनिरपेक्ष संगठन के हाथ में था। शुरुआती वर्षों में इज़रायल ने हमास को बढ़ावा भी दिया था ताकि पीएलओ के समर्थन आधार में सेंध डाली जा सकी क्योंकि अरब यहूदियों, मुसलमानों, ईसाइयों की एकता उनके लिए ख़तरनाक थी। परन्तु 1993 में ओस्लो समझौतों के बाद पीएलओ अपने घुटने टेकते हुए समझौतापरस्ती के ढलान पर निकल पड़ी। पीएलओ की समझौतापरस्ती के बाद परिस्थितियों के दबाव से हमास के चरित्र में भी बदलाव आया और वह मुस्लिम ब्रदरहुड व इज़रायली प्रभाव से मुक्त होकर फ़िलिस्तीनी जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाले एक जुझारू संगठन के रूप में सामने आया। 2006 में ग़ज़ा की जनता ने उसे भारी मतों से विजयी बनाकर उसे अपने नेतृत्व के रूप में मंजूरी दी। 2008 में उसने मुस्लिम ब्रदरहुड से अपना नाता भी तोड़ लिया। यहाँ तक उसने इज़रायल के अन्त के लक्ष्य को छोड़कर 1967 के फ़िलिस्तीन-इज़रायल सीमा को स्वीकार करके दो पृथक राज्यों को मान्यता देने वाले ‘दो-राज्य समाधान’ का समझौता भी स्वीकार कर लिया।

फ़िलिस्तीनी जनता अपनी मुक्ति के लिए लड़ रही है। उसके लिए जो संगठन लड़ने को तैयार होता है, जनता उसका साथ देती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि हमास से विचारधारात्मक रूप से हर फ़िलिस्तीनी सहमत है। भारत की आज़ादी की लड़ाई में भी जनता ने उस शक्ति का साथ दिया जो जुझारू तरीक़े से अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ लड़ने को तैयार थी, चाहे वह धार्मिक पुनरुत्थानवाद का रंग रखने वाला तिलक का राष्ट्रवाद हो या युगान्तर व अनुशीलन का आरम्भिक राष्ट्रवाद हो। जनता उसके साथ खड़ी होती है, जो लड़ने के लिए तैयार हो। फ़िलिस्तीन की आज़ादी के संघर्ष का समर्थन करने के लिए हमास से विचारधारात्मक रूप से सहमत होना आवश्यक नहीं है। साथ ही, हमास कोई आई.एस.आई.एस., बोको हरम या लश्कर-ए-तैयबा जैसा आतंकवादी संगठन नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध में शामिल संगठन है। इस समय फ़िलिस्तीन में पी.एफ.एल.पी. जैसा सेक्युलर संगठन इज़रायली ज़ायनवादी उपनिवेशवाद के विरुद्ध मुक्तियुद्ध में शामिल है और हमास समेत अन्य संगठनों के साथ मोर्चा बनाकर लड़ रहा है। इसलिए यह फ़िलिस्तीनी जनता का मुक्तियुद्ध है, न कि कोई आतंकवादी कार्रवाई।

भारत के लोगों को फ़िलिस्तीन के समर्थन में क्यों आगे आना चाहिए?

फ़िलिस्तीन और इज़रायल के बीच अपना पक्ष चुनते समय हम भारत के लोगों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि हमारा साझा सरोकार किसके साथ है। क्या हम भूल सकते हैं कि हम ख़ुद 200 सालों तक ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के ज़ुल्मों का शिकार रहे हैं? जिस समय ब्रिटिश उपनिवेशवादी फ़िलिस्तीनियों की ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़े को बढ़ावा दे रहे थे ठीक उसी समय वे हमारे देश की जनता पर क़हर बरपा कर रहे थे और लाखों लोगों को अकाल और भुखमरी की ओर धकेल रहे थे। यह इतिहास की एक त्रासदी ही है कि इक्कीसवीं सदी में जब दुनिया के तमाम देश आज़ाद हो चुके हैं तब फ़िलिस्तीन को अभी भी एक भयंकर क़िस्म का सेटलर उपनिवेशवादी उत्पीड़न झेलना पड़ रहा है। ज़ाहिरा तौर पर उपनिवेशवाद के भुक्तभोगी रहे भारत के स्वाभिमानी और आज़ादीपसन्द लोगों का नैसर्गिक समर्थन फ़िलिस्तीन को होना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करते और इज़रायल के पक्ष में खड़े हैं तो यह अपनी शानदार विरासत पर, महान स्वतन्त्रतासेनानियों, क्रान्तिकारियों की स्मृति पर, स्वयं अपने पुरखों पर थूकने के समान होगा। यह एक विडम्बना ही है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान और ख़ासकर मोदी सरकार के पिछले एक दशक के फ़ासीवादी शासन के दौरान फ़िलिस्तीनियों के स्वतंत्रता संघर्ष के ख़िलाफ़ किए गए दुष्प्रचार की वजह से भारत में इज़रायल के प्रति समर्थन बढ़ा है। साथ ही, इस मसले के बारे में देश के लोगों में जागरूकता बहुत कम है।

परन्तु ऐसा हमेशा से नहीं था। हमारे देश की आज़ादी की लड़ाई के समय से ही फ़िलिस्तीनी क़ौम की आज़ादी के प्रति व्यापक जनसमर्थन था। गाँधी और नेहरू जैसे स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख नेता भी फ़िलिस्तीन के मुखर पक्षधर थे। 1938 में ‘हरिजन’ पत्रिका में लिखे अपने लेख में गाँधी ने लिखा था, ‘फ़िलिस्तीन अरबों का है, ठीक उसी तरह से जैसे इंग्लैण्ड अंग्रेज़ों को और फ़्रांस फ़्रेंच लोगों का है।’ नेहरू भी फ़िलिस्तीनियों की आज़ादी की लड़ाई के समर्थक और फ़िलिस्तीन में एक ज़ायनवादी राज्य की स्थापना के विरोधी थे। ग़ौरतलब है कि 1947 में जब संयुक्त राष्ट्र में इज़रायल को मंजूरी देने वाली विभाजन योजना पारित हुई थी तो भारत ने उस प्रस्ताव के विरोध में मत दिया था और उसने इज़रायल को मान्यता भी तुरन्त नहीं दी थी। आज़ादी के बाद के कई दशकों तक भारत ने इज़रायल के साथ राजनयिक सम्बन्ध बनाने से इंकार कर दिया था। भारत ही नहीं, दुनिया भर में तमाम देशों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के नेता जैसे तंज़ानिया के जूलियस न्येरेरे, घाना के क्वामे एनक्रुमा, कांगों के पैट्रिस लुमुंबा, दक्षिण अफ़्रीका के नेल्सन मण्डेला भी ज़ायनवादी इज़रायल के विरोधी और फ़िलिस्तीन की आज़ादी के मुखर पक्षधर थे। मण्डेला ने तो यहाँ तक कहा था, ‘हमारी आज़ादी फ़िलिस्तीन की आज़ादी के बिना अधूरी है।’

क्या इज़रायल से मित्रता भारत के हित में है? 

कुछ लोग यह दलील देते हैं कि इज़रायल से मित्रता भारत के हित में है क्योंकि वह भारत को बेहद अहम तकनोलॉजी की आपूर्ति करता है। अव्वलन तो इज़रायल द्वारा रक्षा और निगरानी के क्षेत्र में भारत को दी जाने वाली तकनोलॉजी का लाभ अधिकांशत: भारत के शासक वर्ग के हित में है ना कि भारत की जनता के हित में। क्या हम भूल सकते हैं कि इज़रायल द्वारा भारत सहित दुनिया के तमाम देशों की सरकारों को बेचे गये ‘पेगासस’ नामक मालवेयर का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों और सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं एवं पत्रकारों के ऊपर निगरानी रखने के लिए किया गया था? इज़रायल से हमारा-आपका रिश्ता नहीं है। उससे हमारे देश के शासक वर्ग का रिश्ता है, जो इज़रायल से हमें ही दबाने-कुचलने के नये-नये तरीक़े सीखने का काम करता है। कोई भी दिल रखने वाला इंसान क्या फ़िलिस्तीन के मासूम बच्चों के क़त्लेआम को भूलकर, उनके नन्हे ताबूतों से मुँह फेरकर इज़रायल के साथ किसी भी क़िस्म के रिश्ते को जायज़ ठहरा सकते हैं? बर्बरता और नरसंहार के प्रतीक इज़रायल के साथ किसी भी प्रकार के रिश्ते का समर्थन करना किसी भी इंसाफ़पसन्द इंसान के ज़मीर को कचोटेगा। ज़रा सोचिये : क्यों पूरी दुनिया की जनता की भारी बहुसंख्या इज़रायल के ख़िलाफ़ है, चाहे वह ईसाई हो, यहूदी हो, बौद्ध हो, मुसलमान हो या किसी और धर्म की हो? बस पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों का शासक वर्ग इज़रायल के साथ है। ख़ुद उनके देश की जनता भी इज़रायल नहीं बल्कि फ़िलिस्तीन के साथ है, उपनिवेशवाद नहीं बल्कि आज़ादी के साथ है।   (मज़दूर बिगुल से साभार)

(यह लेखक के निजी विचार हैं। जीटी रोड लाइव का सहमत होना ज़रूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का सम्मान करते हैं।

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