शहर से गांव डगर तक की कहानी

पंकज श्रीवास्तव

मेरे पापा कृष्णा नन्द ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को 1940 के आसपास बक्सर में सुना था, जिसकी चर्चा वह गाहे-बगाहे कर लिया करते थे। 1991 में जब मैं डाल्टनगंज में रहने लगा, तो जाना कि प्रकाश चन्द जैन सेवासदन की भवन संरचना और परिसर मूल रूप से अमिय कुमार घोष उर्फ गोपा बाबू का आवासीय परिसर था। गोपा बाबू सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी और संविधान सभा के सदस्य रहे थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस 7 मार्च,1940 को डालटनगंज पधारे,तो गोपा बाबू के यहां ही ठहरे थे। सुकोमल दत्ता और उनकी युवा मंडली ने डाल्टनगंज ही नहीं, शाहपुर में भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की सभा की मुकम्मल व्यवस्था की थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने रामगढ़ अधिवेशन के समानान्तर एक बैठक के लिए फणीन्द्रनाथ चटर्जी के फिएट कार में निकल लिए थे। वैसे इस दौरान उनका अस्थायी मुख्यालय लालपुर, रांची स्थित स्व. फणींद्रनाथ आयकत का घर रहा था।

स्वतंत्रता आन्दोलन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का ऐतिहासिक योगदान

स्वतंत्रता आन्दोलन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के ऐतिहासिक योगदान के सम्मान स्वरूप 23 मई, 2008 के प्रभाव से हावड़ा दिल्ली ग्रैंड कॉर्ड पर अवस्थित गोमो जंक्शन का नाम बदल कर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गोमो जंक्शन कर दिया गया है। वैसे हावड़ा दिल्ली के बीच रेल सेवा सन् 1866 ई में ही शुरू हो गई थी, लेकिन गोमो रेलवे स्टेशन का अस्तित्व सन् 1906 ई में सामने आया और 1960-61 में इस लाइन का विद्युतीकरण कर लिया गया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती के शुभ अवसर पर 23जनवरी, 2021 के प्रभाव से हावड़ा दिल्ली कालका मेल का नाम बदलकर नेताजी एक्सप्रेस कर दिया गया है।

गोमो रेलवे स्टेशन और हावड़ा दिल्ली कालका मेल का नाम बदले जाने की ऐतिहासिक प्रासंगिकता यह है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस राजद्रोह के आरोपी थे। व्यावहारिक तौर पर उनको एल्गिन रोड, कोलकाता स्थित अपने ही घर में गृहकैद रखा गया था। वह ब्रिटिश हुकूमत को चकमा देकर कार में गोमो तक भाग निकलने में सफल हुए थे। अपने छद्म नाम मोहम्मद जियाउद्दीन के नाम से वह कालका मेल से दिल्ली और फिर वहां से पेशावर एक्सप्रेस से पेशावर,काबुल होते बर्लिन तक निकल भागने में सफल हुए थे। पटना रांची, पटना, धनबाद, डिहरी, हावड़ा आने-जाने के क्रम में सैकड़ों बार गोमो स्टेशन से होकर गुजरा होऊंगा। लेकिन, कभी गोमो स्टेशन उतरकर इन ऐतिहासिक विरासतों से रूबरू होने का सौभाग्य और सुअवसर नहीं मिला।

पिछले दिनों,बौद्धिक,वैचारिक, प्रतिबद्ध पत्रिकाओं के राष्ट्रीय सम्मेलन के संदर्भ में 28 फरवरी-2 मार्च,2025 तक धनबाद प्रवास पर रहा। डाल्टनगंज से मैं और शिवशंकर पलामू एक्सप्रेस से निकले। गया में ट्रेन बदल कर हम गोमो पहुंचे। गोमो प्लेटफार्म पर उतरते ही, मैंने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस स्मारक ढूंढ़ने की कोशिश की।यह प्लेटफार्म पर ही है। इस स्थल पर पहुंचते ही इतिहास से साक्षात्कार करते हुए मन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति और भी श्रद्धावनत हो गया…..

…..1940 में जब हिटलर के बमवर्षक लंदन पर बम गिरा रहे थे, ब्रिटिश हुकूमत ने अपने सबसे बड़े दुश्मन सुभाष चंद्र बोस को कलकत्ता की प्रेसिडेंसी जेल में कैद कर रखा था। सरकार ने बोस को 2 जुलाई,1940 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया था। 29 नवंबर,1940 को सुभाष चंद्र बोस ने जेल में अपनी गिरफ़्तारी के विरोध में भूख हड़ताल शुरू कर दी। गिरते स्वास्थ और भूख हड़ताल के कारण कहीं उनकी मौत न हो जाए, और इस कारण कहीं हिंसक जनाक्रोश न भड़क उठे, इस आशंका से ग्रसित गवर्नर जॉन हरबर्ट ने एक सप्ताह बाद, 5 दिसंबर को एक एंबुलेंस में बोस को उनके घर भिजवा दिया।

हरबर्ट की सोच थी कि जैसे ही बोस की सेहत में सुधार हो, वो उन्हें फिर से हिरासत में ले लें। बंगाल सरकार ने न सिर्फ़ उनके 38/2,एल्गिन रोड के घर के बाहर सादे कपड़ों में पुलिस का कठोर पहरा बैठा दिया, बल्कि ये पता करने के लिए भी अपने कुछ जासूस छोड़ रखे थे कि घर के अंदर क्या हो रहा है? उनमें से एक जासूस एजेंट 207 ने सरकार को ख़बर दी थी कि सुभाष बोस ने जेल से घर वापस लौटने के बाद जई का दलिया और सब्ज़ियों का सूप पिया था। उस दिन से ही उनसे मिलने वाले हर शख़्स की गतिविधियों पर नज़र रखी जाने लगी थी और बोस के द्वारा भेजे हर ख़त को डाकघर में ही खोल कर पढ़ा जाने लगा था।

‘आमार एकटा काज कौरते पारबे’

5 दिसंबर की दोपहर सुभाष की दाढ़ी बढ़ी हुई थी और वो अपनी तकिया पर अधलेटे से थे.उन्होंने कुछ ज़्यादा ही देर तक अपने 20 वर्षीय भतीजे शिशिर के हाथ को अपने हाथ में लिए रखा। फिर पूछा-‘आमार एकटा काज कौरते पारबे?’यानि ‘क्या तुम मेरा एक काम कर पाओगे?’ बिना ये जाने हुए कि काम क्या है शिशिर ने हांमी भर दी थी.बाद में पता चला कि वो भारत से गुप्त रूप से निकलने में शिशिर की मदद लेना चाहते थे। योजना बनी की शिशिर देर रात अपने चाचा को कार में बैठाकर कलकत्ता से दूर एक रेलवे स्टेशन तक छोड़ आएंगे। सुभाष और शिशिर ने तय किया कि वो घर के मुख्यद्वार से ही बाहर निकलेंगे.उनके पास दो विकल्प थे- अपनी जर्मन वांड्रर कार या फिर अमेरिकी स्टुडबेकर प्रेसिडेंट.अमेरिकी कार बड़ी ज़रूर थी,लेकिन उसे आसानी से पहचाना जा सकता था, इसलिए इस यात्रा के लिए वांड्रर कार को चुना गया।

शिशिर कुमार बोस अपनी किताब द ग्रेट एस्केप में लिखते हैं -हमने मध्य कलकत्ता के वैचल मौला डिपार्टमेंट स्टोर में जा कर बोस के भेष बदलने के लिए कुछ ढीली सलवारें और एक फ़ैज़ टोपी ख़रीदी.अगले कुछ दिनों में हमने एक सूटकेस,एक अटैची, काट्सवुल की कमीज़ें,टॉयलेट का कुछ सामान, तकिया और कंबल ख़रीदा। मैं फ़ेल्ट हैट लगाकर एक प्रिटिंग प्रेस गया और वहाँ मैंने सुभाष के लिए विज़िटिंग कार्ड छपवाने का ऑर्डर दिया.कार्ड पर लिखा गया,मोहम्मद ज़ियाउद्दीन,बीए, एलएलबी,ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर,द एम्पायर ऑफ़ इंडिया अश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, स्थायी पता,सिविल लाइंस,जबलपुर।

माँ को भी सुभाष के जाने की हवा नहीं दी गई

यात्रा की एक रात पहले शिशिर ने पाया कि जो सूटकेस वो ख़रीद कर लाए थे वो वांड्रर कार के बूट में समा ही नहीं पा रहा था.इसलिए तय किया गया कि सुभाष का पुराना सूटकेस ही उनके साथ जाएगा.उस पर लिखे गए उनके नाम एससीबी को मिटाकर उसके स्थान पर चीनी स्याही से एमज़ेड लिखा गया। 16 जनवरी को कार की सर्विसिंग कराई गई.अंग्रेज़ों को धोखा देने के लिए सुभाष के निकल भागने की बात बाकी घर वालों,यहाँ तक कि उनकी माँ से भी से छिपाई गई.जाने से पहले सुभाष ने अपने परिवार के साथ आख़िरी बार भोजन किया.उस समय वो सिल्क का कुर्ता और धोती पहने हुए थे.सुभाष को घर से निकलने में थोड़ी देर हो गई क्योंकि घर के बाकी सदस्य अभी जाग रहे थे।

शयनकक्ष की बत्ती जलती छोड़ी गई

रात 1.35 बजे के लगभग सुभाष बोस ने मोहम्मद ज़ियाउद्दीन का भेष धारण किया। उन्होंने सोने के रिम का अपना चश्मा पहना जिसे उन्होंने एक दशक पहले पहनना बंद कर दिया था। शिशिर की लाई गई काबुली चप्पल उन्हें रास नहीं आई। इसलिए उन्होंने लंबी यात्रा के लिए फ़ीतेदार चमड़े के जूते पहने। सुभाष कार की पिछली सीट पर जा कर बैठ गए. शिशिर ने वांड्रर कार बीएलए 7169 का इंजन स्टार्ट किया और उसे घर के बाहर ले आए। सुभाष के शयनकक्ष की बत्ती अगले एक घंटे के लिए जलती छोड़ दी गई। जब सारा कलकत्ता गहरी नींद में था, चाचा और भतीजे ने लोअर सर्कुलर रोड,सियालदाह और हैरिसन रोड होते हुए हुगली नदी पर बना हावड़ा पुल पार किया। दोनों चंद्रनगर से गुज़रे और भोर होते-होते आसनसोल के बाहरी इलाके में पहुंच गए। सुबह क़रीब साढ़े आठ बजे शिशिर ने धनबाद के बरारी में अपने भाई अशोक के घर से कुछ सौ मीटर दूर सुभाष को कार से उतारा।

गोमो से कालका मेल पकड़ी

शाम को बातचीत के बाद ज़ियाउद्दीन ने अपने मेज़बान को बताया कि वो गोमो स्टेशन से कालका मेल पकड़ कर अपनी आगे की यात्रा करेंगे। कालका मेल गोमो स्टेशन पर देर रात आती थी.गोमो स्टेशन पर नींद भरी आँखों वाले एक कुली ने सुभाष चंद्र बोस का सामान उठाया। शिशिर बोस अपनी किताब में लिखते हैं-मैंने अपने रंगा काका बाबू को कुली के पीछे धीमे-धीमे फुट-ओवरब्रिज पर चढ़ते देखा.थोड़ी देर बाद वो चलते-चलते अँधेरे में गायब हो गए। कुछ ही मिनटों में कलकत्ता से चली कालका मेल वहाँ पहुँच गई.मैं तब तक स्टेशन के बाहर ही खड़ा रहा था.दो मिनट बाद ही मुझे कालका मेल के आगे बढ़ते पहियों की आवाज़ सुनाई दी। सुभाष चंद्र बोस की ट्रेन पहले दिल्ली पहुंची। फिर वहाँ से उन्होंने पेशावर के लिए फ़्रंटियर मेल पकड़ी।

पेशावर के ताजमहल होटल में सुभाष को ठहराया गया

19 जनवरी की देर शाम जब फ़्रंटियर मेल पेशावर के केंटोनमेंट स्टेशन में घुसी तो मियाँ अकबर शाह बाहर निकलने वाले गेट के पास खड़े थे. उन्होंने एक अच्छे व्यक्तित्व वाले मुस्लिम शख़्स को गेट से बाहर निकलते देखा। वो समझ गए कि वो और कोई नहीं दूसरे भेष में सुभाष चंद्र बोस हैं। अकबर शाह उनके पास गए और उनसे एक इंतज़ार कर रहे ताँगे में बैठने के लिए कहा। उन्होंने ताँगे वाले को निर्देश दिया कि वो इन साहब को डीन होटल ले चले। फिर वो खुद एक दूसरे ताँगे में बैठे और सुभाष के ताँगे के पीछे चलने लगे।मियाँ अकबर शाह अपनी किताब ‘नेताजीज़ ग्रेट एस्केप’ में लिखते हैं, ‘मेरे ताँगेवाले ने मुझसे कहा कि आप इतने मज़हबी मुस्लिम शख़्स को विधर्मियों के होटल में क्यों ले जा रहे हैं.आप उनको क्यों नहीं ताजमहल होटल ले चलते जहाँ मेहमानों के नमाज़ पढ़ने के लिए जानमाज़ और वज़ू के लिए पानी भी उपलब्ध कराया जाता है? मुझे भी लगा कि बोस के लिए ताजमहल होटल ज़्यादा सुरक्षित जगह हो सकती है क्योंकि डीन होटल में पुलिस के जासूसों के होने की संभावना हो सकती है। लिहाज़ा बीच में ही दोनों ताँगों के रास्ते बदले गए.ताजमहल होटल का मैनेजर मोहम्मद ज़ियाउद्दीन से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनके लिए फ़ायर प्लेस वाला एक सुंदर कमरा खुलवाया। अगले दिन मैंने सुभाष चंद्र बोस को अपने एक साथी आबाद ख़ाँ के घर पर शिफ़्ट कर दिया। वहाँ पर अगले कुछ दिनों में सुभाष बोस ने ज़ियाउद्दीन का भेष त्याग कर एक बहरे पठान का वेष धारण कर लिया.ये ज़रूरी था क्योंकि सुभाष स्थानीय पश्तो भाषा बोलना नहीं जानते थे।

अड्डा शरीफ़ की मज़ार पर ज़ियारत

सुभाष के पेशावर पहुँचने से पहले ही अकबर ने तय कर लिया था कि फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के दो लोग-मोहम्मद शाह और भगतराम तलवार बोस को भारत की सीमा पार कराएंगे। भगत राम का नाम बदल कर रहमत ख़ाँ कर दिया गया। तय हुआ कि वो अपने गूँगे बहरे रिश्तेदार ज़ियाउद्दीन को अड्डा शरीफ़ की मज़ार ले जाएँगे जहाँ उनके फिर से बोलने और सुनने की दुआ माँगी जाएगी। 26 जनवरी,1941 की सुबह मोहम्मद ज़ियाउद्दीन और रहमत ख़ाँ एक कार में रवाना हुए. दोपहर तक उन्होंने तब के ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा पार कर ली। वहाँ उन्होंने कार छोड़ उत्तर पश्चिमी सीमांत के ऊबड़-खाबड़ कबाइली इलाके में पैदल बढ़ना शुरू कर दिया। 27-28 जनवरी की आधी रात वो अफ़ग़ानिस्तान के एक गाँव में पहुँचे। इन लोगों ने चाय के डिब्बों से भरे एक ट्रक में लिफ़्ट ली और 28 जनवरी की रात जलालाबाद पहुँच गए। अगले दिन उन्होंने जलालाबाद के पास अड्डा शरीफ़ मज़ार पर ज़ियारत की। 30 जनवरी को उन्होंने ताँगे से काबुल की तरफ़ बढ़ना शुरू किया। फिर वो एक ट्रक पर बैठ कर बुद ख़ाक के चेक पॉइंट पर पहुँचे.वहाँ से एक अन्य ताँगा कर वो 31 जनवरी,1941 की सुबह काबुल में दाख़िल हुए।

आनंद बाज़ार पत्रिका में सुभाष के गायब होने की ख़बर छपी

इस बीच सुभाष को गोमो छोड़ कर शिशिर 18 जनवरी को कलकत्ता वापस पहुँच गए और अपने पिता के साथ सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक गुरु चितरंजन दास की पोती की शादी में सम्मिलित हुए। वहाँ जब उनसे लोगों ने सुभाष के स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि उनके चाचा गंभीर रूप से बीमार हैं।इस बीच रोज़ सुभाष बोस के एल्गिन रोड वाले घर के उनके कमरे में खाना पहुँचाया जाता रहा। वो खाना उनके भतीजे और भतीजियाँ खाते रहे ताकि लोगों को आभास मिलता रहे कि सुभाष अभी भी अपने कमरे में हैं। सुभाष ने शिशिर से कहा था कि अगर वो चार या पाँच दिनों तक मेरे भाग निकलने की ख़बर छिपा गए तो फिर उन्हें कोई नहीं पकड़ सकेगा। 27 जनवरी को एक अदालत में सुभाष के ख़िलाफ़ एक मुकदमे की सुनवाई होनी थी। तय किया गया था कि उसी दिन अदालत को बताया जाएगा कि सुभाष का घर में कहीं पता नहीं है। सुभाष के दो भतीजों ने पुलिस को ख़बर दी कि वो घर से गायब हो गए हैं.ये सुनकर सुभाष की माँ प्रभाबती का रोते-रोते बुरा हाल हो गया। उनको संतुष्ट करने के लिए सुभाष के भाई शरत ने अपने बेटे शिशिर को उसी वांड्रर कार में सुभाष की तलाश के लिए कालीघाट मंदिर भेजा। 27 जनवरी को सुभाष के गायब होने की ख़बर सबसे पहले आनंद बाज़ार पत्रिका और हिंदुस्तान हेरल्ड में छपी। इसके बाद उसे रॉयटर्स ने उठाया.जहाँ से ये ख़बर पूरी दुनिया में फैल गई। ये सुनकर ब्रिटिश खुफ़िया अधिकारी न सिर्फ़ आश्चर्यचकित रह गए बल्कि शर्मिंदा भी हुए। शिशिर कुमार बोस और उनके पिता ने इन अफ़वाहों को बल दिया कि सुभाष ने संन्यास ले लिया है। जब महात्मा गाँधी ने सुभाष के गायब हो जाने के बारे में टेलिग्राम किया तो उनको तीन शब्द का जवाब दिया गया-सरकमस्टान्सेज़ इंडीकेट रिनुनसिएशन’ (हालात संन्यास की तरफ़ इशारा कर रहे हैं)। लेकिन,वो रविंद्रनाथ टैगोर से इस बारे में झूठ नहीं बोल पाए। जब टैगोर का तार उनके पास आया तो उन्होंने जवाब दिया-सुभाष जहाँ कहीँ भी हों,उन्हें आपका आशीर्वाद मिलता रहे।

वायसराय लिनलिथगो आगबबूला हुए

उधर जब वायसराय लिनलिथगो को सुभाष बोस के भाग निकलने की ख़बर मिली तो वो बंगाल के गवर्नर जॉन हरबर्ट पर बहुत नाराज़ हुए। हरबर्ट ने अपनी सफ़ाई में कहा कि अगर सुभाष के भारत से बाहर निकल जाने की ख़बर सही है तो हो सकता है कि बाद में हमें इसका फ़ायदा मिले। लेकिन, लिनलिथगो इस तर्क से प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने कहा कि इससे ब्रिटिश सरकार की बदनामी हुई है। कलकत्ता की स्पेशल ब्राँच के डिप्टी कमिश्नर जे वी बी जानव्रिन का विष्लेषण बिल्कुल सटीक था.उन्होंने लिखा-हो सकता है कि सुभाष संन्यासी बन गए हों लेकिन उन्होंने ऐसा धार्मिक कारणों से नहीं बल्कि क्राँति की योजना बनाने के लिए किया है।

सुभाष चंद्र बोस ने जर्मन दूतावास से किया संपर्क

31 जनवरी को पेशावर पहुँचने के बाद रहमत ख़ाँ और उनके गूँगे-बहरे रिश्तेदार ज़ियाउद्दीन(?),लाहौरी गेट के पास एक सराय में ठहरे.इस बीच, रहमत ख़ाँ ने वहाँ के सोवियत दूतावास से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। जब सुभाष ने खुद जर्मन दूतावास से संपर्क करने का फ़ैसला किया। उनसे मिलने के बाद काबुल दूतावास में जर्मन मिनिस्टर हाँस पिल्गेर ने 5 फ़रवरी को जर्मन विदेश मंत्री को तार भेज कर कहा-सुभाष से मुलाक़ात के बाद मैंने उन्हें सलाह दी है कि वो भारतीय दोस्तों के बीच बाज़ार में अपने-आप को छिपाए रखें। मैंने उनकी तरफ़ से रूसी राजदूत से संपर्क किया है।’ बर्लिन और मास्को से उनके वहाँ से निकलने की सहमति आने तक बोस सीमेंस कंपनी के हेर टॉमस के ज़रिए जर्मन नेतृत्व के संपर्क में रहे.इस बीच सराय में सुभाष बोस और रहमत ख़ाँ पर ख़तरा मंडरा रहा था.एक अफ़ग़ान पुलिस वाले को उन पर शक हो गया था। उन दोनों ने पहले कुछ रुपये देकर और बाद में सुभाष की सोने की घड़ी दे कर उससे अपना पिंड छुड़ाया। ये घड़ी सुभाष को उनके पिता ने उपहार में दी थी।

इटालियन राजनयिक के पासपोर्ट में बोस की तस्वीर

कुछ दिनों बाद सीमेंस के हेर टॉमस के ज़रिए सुभाष बोस के पास संदेश आया कि अगर वो अपनी अफ़ग़ानिस्तान से निकल पाने की योजना पर अमल करना चाहते हैं तो उन्हें काबुल में इटली के राजदूत पाइत्रो क्वारोनी से मिलना चाहिए। 22 फ़रवरी,1941 की रात ने इटली के राजदूत से मुलाक़ात की.इस मुलाक़ात के 16 दिन बाद 10 मार्च,1941 को इटालियन राजदूत की रूसी पत्नी सुभाष चंद्र बोस के लिए एक संदेश ले कर आईं जिसमें कहा गया था कि सुभाष दूसरे कपड़ो में एक तस्वीर खिचवाएं। सुभाष की उस तस्वीर को एक इटालियन राजनयिक ओरलांडो मज़ोटा के पासपोर्ट में उनकी तस्वीर की जगह लगा दिया गया। 17 मार्च की रात सुभाष को एक इटालियन राजनयिक सिनोर क्रेससिनी के घर शिफ़्ट कर दिया गया। सुबह तड़के वो एक जर्मन इंजीनियर वेंगर और दो अन्य लोगों के साथ कार से रवाना हुए। वो अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पार करते हुए पहले समरकंद पहुँचे और फिर ट्रेन से मास्को के लिए रवाना हुए। वहाँ से सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी की राजधानी बर्लिन का रुख़ किया।’

टैगोर ने सुभाष बोस पर लिखी एक कहानी

सुभाष बोस के सुरक्षित जर्मनी पहुंच जाने के बाद उनके भाई शरतचंद्र बोस बीमार रविंद्रनाथ टैगोर से मिलने शांति निकेतन पहुंचे। वहाँ उन्होंने महान कवि से बोस के अंग्रेज़ी पहरे से बच निकलने की ख़बर साझा की।अगस्त 1941 में अपनी मृत्यु से कुछ पहले लिखी कहानी ‘बदनाम’ में टैगोर ने आज़ादी की तलाश में निकले एक अकेले पथिक की अफ़ग़ानिस्तान के बीहड़ रास्तों से गुज़रने का बहुत मार्मिक चित्रण खींचा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सम्प्रति डाल्टनगंज में रहकर स्वतंत्र लेखन ।)

 

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