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पिछले महीने बिहार में हुए स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न यानी एसआईआर के प्रथम चरण के बाद बीते एक अगस्त को चुनाव आयोग की ओर से जारी ड्राफ्ट मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां सामने आई है. बीते दिनों इसे लेकर बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने भी प्रेस कांफ्रेंस कर सवाल उठाया था कि कई लोगों के मकान संख्या के आगे शून्य लिखा हुआ है और ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है. तो वहीं अब बीबीसी की ग्राउंड रिपोर्ट में सामने आया है कि ड्राफ़्ट सूची में ग़लत तस्वीरें हैं और इसमें ऐसे भी लोगों के नाम मौजूद हैं, जो अब ज़िंदा नहीं हैं.
बिहार में कुछ ही दिन पहले चुनाव आयोग ने अपडेटेड मतदाता सूची का एक ड्राफ़्ट जारी किया है. राज्य में इसी साल नवंबर महीने में विधानसभा चुनाव होने की संभावना है.
इससे पहले चुनाव आयोग ने एक महीने तक राज्य में चले वोटरों के रिवीज़न के बाद ये ड्राफ़्ट लिस्ट जारी की है.
लेकिन विपक्षी दलों और चुनाव के मुद्दे पर काम करने वाले संगठनों का कहना है कि यह प्रक्रिया जल्दबाज़ी में की गई है.
बिहार के कई मतदाताओं ने बीबीसी को बताया कि
स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न (एसआईआर) की यह प्रक्रिया 25 जून से 26 जुलाई तक चली.
चुनाव आयोग का कहना है कि इस दौरान उसके अधिकारी राज्य के 7.89 करोड़ रजिस्टर्ड मतदाताओं के घर-घर गए और उनकी जानकारी की पुष्टि की.
चुनाव आयोग के मुताबिक़, राज्य में ऐसा रिवीज़न पिछली बार साल 2003 में हुआ था, इसलिए अपडेट ज़रूरी था.
राज्य की नई ड्राफ़्ट सूची में 7.24 करोड़ वोटर्स के नाम हैं. यह संख्या राज्य में पहले रजिस्टर्ड वोटरों की संख्या से क़रीब 65 लाख कम है.
चुनाव आयोग का कहना है कि हटाए गए नामों में 22 लाख ऐसे हैं, जिनकी मौत हो चुकी है, सात लाख ऐसे लोग हैं जिनका नाम एक से ज़्यादा जगहों पर वोटर के तौर पर मौजूद है और 36 लाख लोग ऐसे हैं जो राज्य से बाहर चले गए हैं.
इस ड्राफ़्ट में सुधार के लिए एक सितंबर तक आवेदन किया जा सकता है. इसके लिए अब तक 1.65 लाख से ज़्यादा आवेदन मिल चुके हैं.
इस तरह की समीक्षा पूरे देश में की जाएगी, जिसमें क़रीब एक अरब मतदाताओं की जानकारी की पुष्टि की जाएगी.
लेकिन विपक्षी दलों ने आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग ने बिहार में बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए हैं, इनमें ख़ासकर मुस्लिम समुदाय के लोगों के नाम लिस्ट से हटाए गए हैं. बिहार के चार सीमावर्ती ज़िलों में मुस्लिम आबादी अच्छी संख्या में है.
विपक्षी दलों का आरोप है कि सत्ता पर काबिज़ भारतीय जनता पार्टी यानी बीजेपी को आने वाले चुनाव में फ़ायदा पहुंचाने के लिए ऐसा किया गया है.
चुनाव आयोग और बीजेपी ने विपक्ष के इन आरोपों को ख़ारिज किया है. बीबीसी के सवालों के जवाब में आयोग ने 24 जून का वह आदेश साझा किया है जिसमें एसआईआर प्रक्रिया की जानकारी दी गई है.
इसके साथ ही आयोग ने बीबीसी से 27 जुलाई का प्रेस नोट भी साझा किया है जिसमें कहा गया है कि किसी भी योग्य मतदाता को “छोड़ा नहीं जाएगा.”
आयोग ने अपने जवाब में यह भी कहा, “इसके अलावा आयोग किसी भी भ्रामक जानकारी या बिना आधार के लगाए गए आरोपों के लिए ज़िम्मेदार नहीं है, जिन्हें कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए फैला रहे हैं.”
आयोग ने हटाए गए नामों की सूची या धर्म के आधार पर इसका कोई ब्योरा जारी नहीं किया है, इसलिए विपक्ष की चिंताओं की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं की जा सकती है.
हिंदुस्तान टाइम्स अख़बार की समीक्षा में पाया गया कि किशनगंज ज़िले में मतदाता सूची से हटाए गए नामों की संख्या अधिक है.
यह ज़िला बिहार में मुस्लिम आबादी के सबसे बड़े हिस्से वाले इलाक़े में आता है, लेकिन अन्य मुस्लिम-बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में वोटरों के नाम इस तरह से हटाए गए हों, ऐसा नहीं दिखा है.
इस मुद्दे पर संसद के मॉनसून सत्र में कार्यवाही बार-बार स्थगित हो रही है, क्योंकि विपक्षी सांसद इस पर बहस की मांग कर रहे हैं.
विपक्ष के नेता एसआईआर को लोकतंत्र के लिए ख़तरा बता रहे हैं. संसद के बाहर विपक्षी नेताओं ने “एसआईआर वापस लो” और “वोट चोरी बंद करो” के साथ ही पीएम मोदी के ख़िलाफ़ नारे भी लगाए.
चुनाव सुधार से जुड़ी संस्था एडीआर ने एसआईआर की टाइमिंग पर सवाल उठाए हैं और सुप्रीम कोर्ट भी इस प्रक्रिया की समीक्षा कर रहा है.
एडीआर के संस्थापक सदस्य जगदीप छोकर ने बीबीसी से कहा, “यह प्रक्रिया बिहार विधानसभा चुनाव से महज़ तीन महीने पहले शुरू की गई है और इसके लिए पर्याप्त समय नहीं दिया गया.”
उन्होंने कहा, “जैसा कि ग्राउंड रिपोर्ट्स में दिखा है, इस प्रक्रिया में गड़बड़ियां हुई हैं और डेटा इकट्ठा करने की प्रक्रिया बेहद दोषपूर्ण थी.”
एडीआर ने अदालत में दलील दी है, ”यह प्रक्रिया लाखों असल मतदाताओं को मताधिकार से वंचित कर देगी. बिहार भारत के सबसे ग़रीब राज्यों में से एक है और यहां ‘हाशिये पर खड़े समुदायों की बड़ी आबादी’ रहती है.”
संस्था का कहना है कि एसआईआर के ज़रिए लोगों पर अपनी नागरिकता साबित करने का बोझ डाल दिया गया है, इसके लिए कई मामलों में लोगों को काफ़ी कम समय में ख़ुद के और अपने माता-पिता के दस्तावेज़ों की ज़रूरत पड़ रही है.
एडीआर के मुताबिक़, ऐसा कर पाना लाखों ग़रीब प्रवासी कामगारों के लिए असंभव है.
ड्राफ़्ट मतदाता सूची जारी होने के बाद बीबीसी ने पटना और इसके आसपास के गांवों का दौरा किया ताकि एसआईआर को लेकर मतदाताओं के नज़रिए का पता लग सके.
दनारा गांव में महादलित समुदाय की आबादी रहती है. यहां के ज़्यादातर लोग ऊंची जातियों के खेतों में काम करते हैं या फिर बेरोज़गार हैं.
गांव में लोगों के मकान जर्जर नज़र आते हैं. इसकी तंग गलियों के किनारे खुले नाले हैं और स्थानीय मंदिर के पास पानी जमा है, जिससे बदबू आ रही है.
ज़्यादातर ग्रामीणों को एसआईआर या उसके असर के बारे में बहुत कम जानकारी थी. कई लोग इस बात को लेकर भी निश्चित नहीं थे कि कोई अधिकारी उनके घर आया था या नहीं.
लेकिन यहां के लोग अपने वोट को बेहद अहम मानते हैं. गांव की रेखा देवी कहती हैं, “अगर हमारा नाम वोटर लिस्ट से हट गया तो यह विनाशकारी होगा. यह हमें और ज़्यादा ग़रीबी में धकेल देगा.”
पास के ही खरीका गांव में कई पुरुषों ने बताया कि उन्होंने एसआईआर के बारे में सुना है और फ़ॉर्म भी जमा किए हैं, जिसके लिए फ़ोटो खिंचवाने में 300 रुपये तक ख़र्च करने पड़े.
लेकिन ड्राफ़्ट सूची आने के बाद रिटायर हो चुके शिक्षक और किसान तार्केश्वर सिंह ने इसे “गड़बड़” बताया.
उन्होंने अपने परिवार के दस्तावेज़ दिखाते हुए ग़लतियों की ओर इशारा किया, जिनमें उनके नाम के साथ ग़लत फोटो लगी हुई थी.
उन्होंने बताया, “मुझे नहीं पता कि यह फ़ोटो किसकी है.”
उनके अनुसार, उनकी पत्नी सूर्यकला देवी और बेटे राजीव के नाम के साथ भी ग़लत तस्वीरें हैं.
तार्केश्वर सिंह कहते हैं, “लेकिन सबसे गड़बड़ मामला मेरे दूसरे बेटे अजीव का है. उसके नाम के साथ एक अनजान महिला की फ़ोटो लगी है.”
तार्केश्वर सिंह ने अन्य गड़बड़ियों का भी ज़िक्र किया.
उनकी बहू जूही कुमारी के पति के नाम की जगह तार्केश्वर सिंह का नाम लिखा हुआ है, जबकि यहां तार्केश्वर सिंह के बेटे का नाम होना चाहिए था.
वहीं, उनकी दूसरी बहू संगीता सिंह का नाम एक ही पते के साथ दो बार दर्ज है – जिनमें से केवल एक में सही फ़ोटो और जन्मतिथि लिखी हुई है.
उनका कहना है कि उनके कई रिश्तेदारों और पड़ोसियों की शिकायतें भी इसी तरह की हैं.
उन्होंने ड्राफ़्ट लिस्ट में अपने रिश्ते के एक भाई का नाम दिखाया, जिनकी पांच साल पहले ही मौत हो चुकी है. साथ ही इसमें कम से कम दो नाम ऐसे हैं जो दो बार दर्ज हैं.
जगदीप छोकर का कहना है, “स्पष्ट है कि मतदाता सूची की कोई जांच नहीं हुई. सूची में मरे हुए लोगों के नाम हैं, नामों का दोहराव है और कई ऐसे नाम हैं जिन्होंने फ़ॉर्म भी नहीं भरा. यह सरकारी मशीनरी और इस प्रक्रिया पर ख़र्च हुए अरबों रुपयों का दुरुपयोग है.”
एडीआर के जगदीप छोकर का कहना है कि वह इस हफ़्ते सुप्रीम कोर्ट में इन मुद्दों को उठाएंगे.
जुलाई महीने में अदालत ने कहा था कि अगर याचिकाकर्ता ऐसे 15 असल मतदाताओं का प्रमाण दे दें, जिनका नाम ड्राफ़्ट सूची से ग़ायब है, तो अदालत इस प्रक्रिया पर रोक लगा देगी.
छोकर सवाल करते हैं, “लेकिन हम ऐसा कैसे करें, क्योंकि आयोग ने उन 65 लाख नामों की सूची ही उपलब्ध नहीं कराई है, जिन्हें हटाया गया है?”
उनका कहना है कि दो जजों की पीठ में से एक न्यायाधीश ने सुझाव दिया कि आने वाले चुनावों से इस प्रक्रिया को अलग कर दिया जाए ताकि वोटर लिस्ट की समीक्षा के लिए अधिक समय मिल सके.
छोकर कहते हैं, “अगर ऐसा हो जाए तो मुझे ख़ुशी होगी.”
इस दौरान एसआईआर और वोटरों की ड्राफ़्ट सूची पर बिहार की सियासत बंट गई है.
विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने इस पर सवाल उठाए हैं, जबकि सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड)-बीजेपी गठबंधन इसके समर्थन में है.
आरजेडी के महासचिव शिवानंद तिवारी का कहना है, “इस पुनरीक्षण की जटिल प्रक्रिया ने कई लोगों को उलझन में डाल दिया है.”
शिवानंद तिवारी ने चुनाव आयोग के 98.3% मतदाताओं के अपने फ़ॉर्म भरने के दावे पर सवाल उठाए हैं.
उनका कहना है, “ज़्यादातर गांवों में हमारे मतदाता और कार्यकर्ता बताते हैं कि ब्लॉक लेवल ऑफ़िसर (बीएलओ) उनसे मिलने ही नहीं आए.”
“बीएलओ को आयोग ने घर-घर जाने के लिए नियुक्त किया है, वे आमतौर पर स्थानीय स्कूल शिक्षक होते हैं. इनमें से कई बीएलओ प्रशिक्षित नहीं हैं और उन्हें फ़ॉर्म अपलोड करना नहीं आता है.”
चुनाव आयोग का कहना है कि बीएलओ ने “बहुत ज़िम्मेदारी से काम किया है”.
शिवानंद तिवारी ने आरोप लगाया, “आयोग पक्षपात कर रहा है और यह चुनाव में जोड़-तोड़ करना है.”
उन्होंने कहा, “हमें लगता है कि निशाने पर वे सीमावर्ती इलाक़े हैं, जहां बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी रहती है जो कभी बीजेपी को वोट नहीं देती.”
बीजेपी और जेडीयू ने इन आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहा, “ये पूरी तरह से राजनीतिक आरोप हैं.”
बिहार से बीजेपी के सांसद भीम सिंह का कहना है, “सिर्फ़ भारतीय नागरिकों को वोट का अधिकार है और हमें लगता है कि हाल के वर्षों में सीमावर्ती इलाक़ों में बड़ी संख्या में रोहिंग्या और बांग्लादेशी आकर बस गए हैं. इन्हें सूची से हटाना ज़रूरी है.”
उन्होंने कहा, “एसआईआर का किसी के धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. विपक्ष यह मुद्दा इसलिए उठा रहा है, क्योंकि उसे पता है कि वह आगामी चुनाव हारने वाला है और हार का ठीकरा फोड़ने के लिए बहाना चाहिए.”
जेडीयू के मुख्य प्रवक्ता और विधान परिषद के सदस्य नीरज कुमार सिंह ने कहा, “चुनाव आयोग तो सिर्फ़ अपना काम कर रहा है.”
उनका कहना है, “सूची में बहुत सारे मतदाताओं के नाम दो या तीन बार दर्ज हैं. तो क्या उसे ठीक नहीं किया जाना चाहिए?”