शहर से गांव डगर तक की कहानी

कृष्ण समिद्ध

कला के साथ विचित्र बात यह होती है कि वह समाज-सापेक्ष होती है और इसलिए कभी-कभी कलाकृति की अंतर्वस्तु पर बात करना आवश्यक नहीं होता, बल्कि इस कलाकृति के समाज में आने का समय महत्वपूर्ण होता है। अविनाश दास की ‘इन गलियों में ‘ भी एक ऐसी ही फिल्म है। भारत में मानसिक हिंसा का दौर चल रहा है। यह हिंसा उतनी प्रत्यक्ष नहीं, जितनी किसी जली हुई बस्ती की राख में या किसी उखड़ी हुई ईंट की गवाही में होती है। “द कश्मीर फाइल्स” के बाद हाल में “छावा” तक हिंदी सिनेमा में जो दबाव था, इसी दबाव, इसी मानसिक हिंसा के मनोविज्ञान में अविनाश दास  की “इन गलियों में” किसी पुराने स्वप्न की भाँति प्रवेश करती है—नेहरू के सफेद कबूतर की तरह, जो अब भी उड़ने का स्वप्न देखता है, जबकि आकाश किसी और की मुट्ठी में कैद हो चुका है

एंटीबायोटिक गोली की तरह करती है फ़िल्म असर 

हिंसा के मनोविज्ञान से त्रस्त समाज ने इस फिल्म को एंटीबायोटिक दवा की तरह लिया, जो इस फिल्म के आर्थिक रूप से अच्छे प्रदर्शन का कारण है। एंटीबायोटिक दवा की तरह —एक ऐसी गोली, जिसे निगलते ही एक राहत महसूस होती है, मानो बुखार कुछ डिग्री उतर गया हो। शायद इसीलिए यह फिल्म सफल रही। यह सफलता बाजार की भाषा में ‘अच्छा प्रदर्शन’ कहलायेगा। लेकिन क्या यह सफलता वास्तव में फिल्म की थी, या उस असुरक्षा की, उस अनिश्चितता की, जिसने दर्शकों को इसे देखने के लिए मजबूर किया? मेरी समझ में दो अभिनेताओं का अभिनय भी इस फिल्म को ‘फील गुड’ बनाता है – अवंतिका दसानी और खासकर विमान शाह का अभिनय । फिल्म में भाग्यश्री की बेटी अवंतिका दसानी का अभिनय ध्यान आकर्षित करता है और सहज लगता है। विमान शाह का मैनरिज़्म एक अलग अनुभव देता है और अब तक के स्टार – पुत्रों से अलग है। यदि इनका सही इस्तेमाल किया जाए, तो यह नाना पाटेकर या राजकुमार की तरह एक विचित्र अभिनय शैली का रूप ले सकता है, लेकिन अपने अनोखे अंदाज़ में। उनके पास एक यूनिक एक्स्प्रेशन है – विचित्र सा।

गुनगुनाती गली की एक प्रेम कहानी भी हल्के मोड में

फिल्म की चर्चा हिंसा से राहत के रूप में तो बहुत हुई है, मगर इस चर्चा में यह बात कहीं दब सी गई कि फिल्म में एक हल्के मोड में गुनगुनाती गली की एक प्रेम कहानी भी चलती है—कुछ कुछ ‘मैंने प्यार किया’ जैसी। मेरे ख्याल से, यह फिल्म की आर्थिक सफलता के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है। इस फिल्म का बैकबोन इसके हीरोनुमा चरित्र निभाने वाले अभिनेता का दल है। जावेद जाफरी और सुशांत सिंह  हिंदी फिल्मों के उन प्रतिभाशाली अभिनेताओं की लिस्ट में आते हैं, जिन्हें अपनी प्रतिभा के अनुरूप भूमिकाएँ नहीं मिल पाईं। पागल-भंगेड़ी की भूमिका में इश्तियाक खान इस लिस्ट में नये नाम हैं। तीनों ने अपने-अपने किरदारों को अभिनय से भरपूर जीवन दिया है। गुप्ता जी के रूप में राजीव ध्यानी का होना सुखद था। यह फिल्म माउथ पब्लिसिटी के दौर में आई होती, तो धीरे-धीरे ‘कयामत से कयामत तक’ जैसी स्थिति बना सकती थी, अगर पुनर्वसु ने कहानी और चरित्र पर थोड़ी और मेहनत की होती।

इस गली का मिर्ज़ा मरा नहीं

यह फिल्म वसु मालवीय की कहानी पर अधारित है। मगर पुनर्वसु द्वारा इस फिल्म का लेखन प्रवचन के मोड में अधिक रहता है, बजाय इसके कि कहानी और चरित्रों का स्वाभाविक विकास होने पाए। इसी अभाव ने ही इस फ़िल्म को 1973 ई. की एम. एस. सथ्यू की ‘गर्म हवा’ के आसपास पहुंचने से रोक दिया। गर्म हवा’ में भी मिर्ज़ा की तरह एक किरदार सलीम है, जिसकी भूमिका बलराज साहनी ने निभाई थी, और हरिया जैसा युवा सिकंदर है, जिसे फ़ारुख़ शेख ने जीवंत किया था। सलीम का लंबे समय तक भारत न छोड़ने का संकल्प अंततः टूट जाता है और वह क्षोभ में पाकिस्तान जाने का निर्णय करता है। वहीं सिकंदर इस निर्णय का विरोध करता है, यह कहते हुए कि उन्हें भागना नहीं, बल्कि इस देश की बेहतरी के लिए संघर्ष करना चाहिए। इस तरह की चारित्रिक स्पष्टता और वैचारिक द्वंद्व का जो गहरापन ‘गर्म हवा’ में है, वही इस फिल्म में अनुपस्थित लगता है। ‘गर्म हवा’ भी इस्मत चुगताई की एक अप्रकाशित लघु कहानी पर आधारित थी, जिसे कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी ने मिलकर पटकथा में ढाला था, जिसमें उस समय के यथार्थ और स्वप्न को प्रमाणिकता से पकड़ा था। पुनर्वसु की पटकथा में ‘गर्म हवा’ जैसी कथा-संयोजन की स्पष्टता और दिशा नहीं मिलती।

आप अविनाश दास की इस फिल्म की एस्थेटिक्स से मतभेद रख सकते हैं, इसके नैरेटिव की कमजोरी को गिन सकते हैं, संवादों की असंगति पर टिप्पणी कर सकते हैं, इसके शिल्प की अपरिपक्वता को रेखांकित कर सकते हैं—यह सब किया जा सकता है, किया भी जाना चाहिए। लेकिन जिस समय में यह फिल्म आई है, जिस समय में यह बात कह रही है, उस सत्य से आप मुँह नहीं मोड़ सकते। यह वही समय है जब सत्य को असत्य की भाषा में गढ़ा जा रहा है, जब इतिहास को वर्तमान के भय से संचालित किया जा रहा है, और जब सिनेमा केवल सिनेमा नहीं, बल्कि किसी गलत विचारों की पुनर्रचना बन जाता है।

बर्तोल्त ब्रेख्त (Bertolt Brecht) की प्रसिद्ध कविता “Motto” की तरह –

“अंधियारे दिनों में,

क्या गीत गाए जाएँगे?

हाँ, वहाँ भी गीत गाए जाएँगे,

अंधकार के दिनों के बारे में।”

यह फिल्म भी उसी ‘अंधियारे समय’ का एक गीत है। लेकिन यह कोई उत्सव का गीत नहीं, यह है जैसे मानो बुझते हुए दीप की लौ के साथ कांपती कोई अंतिम ध्वनि।

यह फिल्म कोई नया स्वप्न नहीं दिखाती, बल्कि पुराने स्वप्नों की टूटन के बीच खड़ी होती है। यह प्रेम की बात करती है, लेकिन जानती है कि प्रेम अब सिर्फ एक संदिग्ध विचार है। यह घृणा के खात्मे की बात करती है, लेकिन जानती है कि घृणा ही अब सर्वमान्य भाषा है।

वर्तमान की छाया को पकड़ने की कोशिश करती फिल्म 

यह फिल्म इतिहास नहीं बदलती, न भविष्य की कोई नई इबारत लिखती है। यह केवल वर्तमान की छाया को पकड़ने की कोशिश करती है—वह वर्तमान, जो अतीत की धूल में छिपा हुआ है और भविष्य की धुंध में खो जाने को तैयार बैठा है। और इसीलिए, यह फिल्म महत्वपूर्ण है—क्योंकि यह एक प्रश्न नहीं, बल्कि एक प्रतिध्वनि है। वह प्रतिध्वनि, जो उस समय से आ रही है, जब प्रश्न पूछने की परंपरा जीवित थी। वह प्रतिध्वनि, जो हमें यह याद दिलाती है कि गीत चाहे जितने धीमे हो जाएँ, चाहे कितनी भी बाधाएँ हों, वे फिर भी गाए जाएँगे—निरर्थकता की हद तक, पराजय की अंतिम सीमा तक, समय के अंत तक।

फिल्म में कुछ भी नया नहीं है—सारी कहानी हनुमान गली और रहमत गली की सीमा पर मिर्जा ( जावेद जाफरी) , जो चायवाला कम शायर अधिक है, उसकी दुकान पर घटती है। चाय की दुकान के सामने दो सब्जी की दुकानें हैं—एक हरिया की और दूसरी बिना माँ-बाप की शबनम की। दोनों का धर्म अलग है, मगर प्यार में दिल एक है। मिर्जा का बेटा एक हिंदू लड़की से शादी करने के कारण नजरों में चढ़ा था और एक पहले के दंगे में मारा गया था।

इस गली में चुनाव के दौरान नेता (सुशांत सिंह) आते हैं। भारत और पाकिस्तान के मैच में रहमत गली में पटाखे फोड़वाकर सांप्रदायिक मतभेद बढ़ाने का प्रयास किया जाता है, मगर मिर्जा के कारण यह असफल रहता है। फिर नेताजी इफ्तार के दौरान मिर्जा की दुकान के कबाब को संदिग्ध बताकर खाने से मना कर देते हैं। एक वीडियो वायरल होता है, जिसमें मिर्जा के कबाब को लेकर संदेह जताया जाता है। फिर कुछ नकाबपोश लोग ईद की रात मिर्जा की हत्या कर देते हैं। उनकी हत्या के आक्रोश में जनता मतदान करके नेता को हरा देती है।

फिल्म में सोशल मीडिया कोई बाहरी उपकरण नहीं, बल्कि एक ऐसा किरदार है जो दृश्य से अधिक अदृश्य होकर घटनाओं की धुरी को बदलता है। हरिया- एक भोला-सा प्रेमी है, जो प्रेम के रील बनाता है—उसके वीडियो में हल्की धूप है, सब्ज़ियों पर पानी के छींटे हैं, और शबनम की आँखों में चमकती उम्मीद। मगर उसका दोस्त राजू (विनय भास्कर)—नफरत के रील बनाता है। उसके वीडियो में नारों की तेज़ी है और चेहरों पर घृणा की छाया है। इसी नफरत की रील से मिर्जा मारा जाता है। न कैमरा कांपता है, न दृश्य झुकता है—सिर्फ़ एक टपकता हुआ खून है, जो स्क्रीन के पार भी किसी आत्मा को दाग़ देता है।और फिर… वही राजू, जो कभी स्क्रीन पर घृणा का संपादन करता था, अब उसी कैमरे से एक नया रील बनाता है। प्रेम का रील।

यह एक टेक्नोलॉजी की नहीं, आत्मा की ट्रांज़िशन है। जैसे अंधेरे में किसी ने धीरे से एक दीपक रख दिया हो। और शायद यही फिल्म का मूक उद्घोष है—कि हम वही करते हैं, जो हमें दिखाया जाता है, मगर एक दिन वह भी आता है जब दिखाने वाले को अपने दृश्य पर पछतावा होता है।

इस फिल्म में एक और किरदार है – लखनऊ की गलियां। काशीनाथ सिंह की ‘काशी का अस्सी’ जिस तरह एक मोहल्ले को इतिहास और विचारधारा के गलियारे में खड़ा करता है, ठीक उसी तरह ‘इन गलियों में ‘ भी शहर की एक गली समूचे राष्ट्र के मानस की प्रतिच्छाया बन जाती है। और जैसे ‘अस्सी’ में हर पात्र एक विचार की तरह उपस्थित होता है, वैसे ही यहाँ भी हर किरदार एक सामाजिक प्रतीक बनकर उभरता है—मिर्ज़ा का चाय बनाना एक सांस्कृतिक प्रतिरोध बन जाता है, हरिया और शबनम की प्रेमकथा एक वैचारिक घोषणा हो जाती है, और हरिया व राजू की रीलें, डिजिटल युग के नैतिक द्वंद्व को मूर्त करती हैं।

यह फिल्म भी एक गली का महाभारत है—जहाँ युद्ध शास्त्रार्थों से नहीं, इफ्तारों, वीडियो रीलों और मूक प्रेम से लड़ा जाता है। इस घृणा की कहानी के साथ हरीया और शबनम की प्रेम कहानी चलती रहती है, जो अंत में जीत जाती है।

नए संदर्भों में, नए अंधकार में, नए समय की छाया

कुल मिलाकर यह घृणा पर प्रेम की जीत की कहानी है, जो हजारों हिंदी फिल्मों में हजारों बार कही जा चुकी है। लेकिन बार-बार कही गई कहानियाँ कभी-कभी नए अर्थ ले लेती हैं—नए संदर्भों में, नए अंधकार में, नए समय की छायाओं में। मिर्जा की दुकान अब सिर्फ एक चाय की दुकान नहीं रही, वह एक रंगमंच बन गई, जहाँ इतिहास दोहराता है, जहाँ सभ्यताओं की दीवारों पर पुराने लहू के धब्बे अब भी गीले हैं। यहाँ कबाब अब सिर्फ खाना नहीं, एक पहचान बन गया—जिसे शक की आँच में पकाया गया, जिस पर एक अफ़वाह की कुल्हाड़ी चलाई गई, और जो अंततः एक मिर्जा के लाश और खून के रूप में सड़क पर बह रहा है, जबकि उसके ठीक बगल में राजनीति अपनी जीत के दंभ में खड़ी मुस्कुरा रही थी।

और फिर भी, इस हजार बार देखी हुई कहानी को देखकर जो आनंद आया, उसने यह महसूस कराया कि हमारा समाज कितना पीछे चला गया है। जो भाईचारा कभी हमारे समाज में सहज जीवन था, अब उसकी कहानी देखकर ही आनंद आता है। पीछे जाते समाज को रुक कर सोचने का अवकाश देने वाली फिल्म है अविनाश दास की ‘इन गलियों में’।

यह एक शोकगीत है उन नुक्कड़ों का, जहाँ कभी चाय के प्यालों में विचार उबलते थे, और अब सिर्फ साजिशें पकती हैं। यह उन गलियों का पुरसुकून रुदन है, जहाँ कभी प्रेम की फुसफुसाहटें थीं, मगर अब घृणा की चीखें गूँजती हैं।

प्रेम और घृणा के इस चक्र में, क्या यह प्रेम सचमुच बच पाएगा, या वह भी किसी और चुनावी मौसम में किसी और मिर्जा के साथ कुचल दिया जाएगा? नेता आएंगे, जाएंगे—कभी पटाखों की आवाज़ में, कभी इफ्तार की संदेहभरी चुप्पी में, कभी किसी सोशल मीडिया पोस्ट के नुकीले तंज में। मगर सवाल वही रहेगा—क्या इस गली का मिर्ज़ा मरेगा या नहीं? क्या इस गली में गीत गाए जाएँगे? क्या वे गीत प्रेम के होंगे या घृणा के?

शायद उत्तर वही होगा—हाँ, गीत गाए जाएँगे। पर वे गीत प्रेम के होंगे या अंधकार के, यह तय करेगा वह समाज जो इन्हें सुनेगा।

पुनश्च – इस फ़िल्म में अविनाश दास एक रिक्शावाले की भूमिका में नज़र आते हैं, जो शबनम से पूछते हैं—’उसके चौथे दिल में कौन रहता है?’ अपनी ही फ़िल्म के एक दृश्य में बतौर अभिनेता प्रकट होकर अविनाश दास, हिचकॉक, एम. नाईट श्यामलन और सुभाष घई की परंपरा में शामिल हो गए हैं। पटना के दर्शकों के लिए उन्हें रिक्शा खींचते देखना निःसंदेह आनंददायक रहा होगा। (FB से साभार)

(समीक्षक फिल्म डायरेक्टर व राइटर हैं। सम्प्रति पटना में रहकर स्वतंत्र लेखन ।)

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