पलॅंगतोड़-भॅंसकबार-लोढ़ा-एटमबम
निराला बिदेसिया
चलिए चलते हैं झारखंड के कुड़ू। कुड़ू एक तिराहा है। पलामू, नेतरहाट, रांची आदि को जोड़नेवाला तिराहा। वहां कुछ ढाबा है। बसें रुकती हैं। प्राइवेट गाड़ियां भी। उन दुकानों की मशहूर मिठाई है, लोढ़ा मिठाई। लोढ़ा मिठाई भी कहते हैं और एटमबम भी। लोढ़ा इसलिए कि इसका साइज और आकार लोढ़ा की तरह होता है। एटमबम इसलिए कि बस एक ही काफी है।
जब बनारस में था। अभी मलइयो का सीजन पीक पर है। कुछ दिन और रहेगा। फिर मलइयो का मामला इतिश्री। शीत खतम, मलइयो खतम. बाकि सालो भर वाला सदबबहार रबड़ी, मलाई, लस्सी चलता ही है। लस्सी तो कड़ाके की ठंड में भी पीते हैं, बनारसवाले। यह नज़ारा बनारस के रविदास गेट के पास पहलवान नाम से चलनेवाले अनेक दुकानों पर नहीं मिलेगा। लस्सी की असल दुकान तो गंगा के उस पार रामनगर शुरू होते ही है। रामप्रसाद की लस्सी। सालों भर कतार लगी रहती है लस्सीप्रेमियों की। वहां जाकर कभी कड़ाके की ठंड में देखिए, कैसे-कैसे लस्सीप्रेमी आते हैं। कांपते हुए बाइक से उतरेंगे। लस्सी दुकान पर जाकर कहेंगे, लागत है भगवान अबकी पाला में जाने ले के मनिहैं। पियावअ एक ठे लस्सी, कुछो तो ठंडवा कटे। खैर, लस्सी की कहानी अनंत है।
इसी बनारस में एक मिठाई पलंगतोड़ भी है। बनारसी जानते हैं इस मिठाई के बारे में। एक ज़माने में यह चुपकउआ मिठाई भी हुआ करता था। नवविवाहित तो खुलेाआम खाते थे इसे पर अधेड़ या बुजुर्ग, छुप छुपाकर खाते या ले जाते थे। नाम पलंगतोड़ है तो बहुत कुछ साफ भी है। कहते हैं कि बंबई में ककरी जब पहली बार बिकना शुरू हुआ था, तो उसे लैला की उंगलियां कहकर बेचते थे, ऐसा हमने विज्ञापन का अध्याय पढ़ते हुए पढ़ा या सुना था. हो सकता है, सच भी हो, झूठ भी। पर, घूमकर ककरी बेचनेवाले लैला की उंगलियां… कहकर बेचते थे, बंबई में. इसी तरह बनारस में कोई 200 साल पहले एक पलंगतोड़ मिठाई का चलन शुरू हुआ. पूरे बनारस में नहीं, कुछ जगहों पर. इक्के—दुक्के दुकानों पर। इसमें ड्राइफ्रुट ओर दूध का मेल होता है। सघन मेल। कहा जाता है कि यह मिठाई नवविवाहितों के बीच खूब लोकप्रिय हुआ था। आज के हिसाब से मानकर चलिए कि बनारस का अपना वियाग्रा टाइप।
ऐसे ही बिहार के भोजपुर और रोहतास जिला के क्षेत्र में खुरमा बड़ा मशहूर है। बिहार के आरा से सटे उदवंतनगर के खुरमा का नाम बड़ा लिया जाता है। पर, यह मिठाई दूसरी जगहों पर अलग नाम से, उतने ही पुराने समय से बेचा जा रहा है। मेरी मौसी बिहार के ही नासरीगंज के पास राजपुर में रहती है। मौसी के यहां बचपन से ही जाते हैं। वहां भी यह मिठाई मशहूर है। पर, वहां बचपन में इसका नाम भॅंसकबार सुना था। साइज बड़ा होता था। बताया गया था कि इसका एक पीस खाते—खाते भांस कबर जाता है यानी हाल बेहाल हो जाता है, इसलिए इसे भॅंसकबार कहते हैं। हम सब बचपन से इसे भॅंसकबार ही कहते थे, अब भी कई लोग कहते हैं। बाद में खुरमा भी कहने लगे।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और संस्कृति कर्मी हैं।)