जीटी रोड लाइव डेस्क
अनारकली ऑफ़ आरा वाले चूज़ी फ़नकार अविनाश दास एक नये शाहकार के साथ इस जुमा यानी शुक्रवार को हाज़िर हुए। उसी जुमा को जिस दिन होली थी। पहली बार नमाज़ और होली के रंग सत्ता के चाबुक से देखने को हम विवश थे। लेकिन अपुन का मूलुक तो हिन्दुस्तान है! अच्छे-अच्छे नादिरशाहों को पानी पिला देता है, तो ‘इन गलियों में’ जाने की क्यों कर रहे हैं लोग ज़िद ? नसीर उद्दीन शाह भी पहुंचे. तो प्रणाम वालेकुम ! दरअसल यही तो अविनाश की फ़िल्म का टाइटल है, ‘इन गलियों में।’ महाकुम्भ स्नान की तरह हर कोई दौड़ा चला जा रहा है और दावत भी दे रहा है। और तो और दमदार अभिनेता नसीर उद्दीन शाह भी लाइफ पार्टनर रत्ना पाठक के साथ थिएटर पहुंचे थे. जानते हैं, कला-संस्कृति, पत्रकारिता-साहित्य से जुड़े लोग क्या कह रहे हैं।
निर्देशक ने कहानी को बेहद संजीदगी से गढ़ा —सटीक, प्रभावशाली और अर्थपूर्ण
बक़ौल डॉ. विनय भरत ; कुछ फिल्में केवल पर्दे पर चलने वाली कहानी नहीं होतीं, बल्कि समय, समाज और इतिहास से संवाद करती हैं। “इन गलियों में” ऐसी ही एक फिल्म है, जो हमें उन गलियों में ले जाती है, जिन्हें इतिहास के संघर्षों ने प्रभावित किया है। देखने के बाद ऐसा महसूस हुआ कि सच में हम एक नए भारत की खोज कर रहे हैं, उस भारत की, जो कभी हुआ करता था। इस भारत को खोजने की प्रक्रिया में यह फिल्म अत्यंत सफल रही है। निर्देशक अविनाश दास ने इस कहानी को बेहद संजीदगी से गढ़ा है। उनके निर्देशन में हर दृश्य अपने आप में एक कविता की तरह है—सटीक, प्रभावशाली और अर्थपूर्ण। उनके कैमरे की नज़र और कथा कहने की शैली फिल्म को एक अलग स्तर पर ले जाती है। इश्तियाक खान ने फिल्म के स्तंभ की तरह अभिनय किया है। उनका पागलपन, जो असल में फिल्म की आत्मा है, यही बताता है कि असली पागल कौन हैं—वे, जिन्हें समाज पागल कहता है, या फिर हम सब? उनकी संवाद कम है. पर अदायगी उतनी ही जबरदस्त! सूत्रधार हैं वे! भाव-भंगिमा और बॉडी लैंग्वेज इतनी प्रभावशाली है कि वे पर्दे पर कहीं भी ओझल नहीं होते। उनके अभिनय में एक गहराई है, जो उनके किरदार को असल बनाती है।” अनारकली ऑफ आरा ” उन्होंने ” देश के लिए कुछ भी ” किया था, वो ” इन गलियों में ” आते -आते सच्चे खोज में निकल पड़ी है. अब तक हम राजीव ध्यानी को स्थिर कैमरे के नियंत्रित फ्रेम में देखने के आदी थे, लेकिन इस फिल्म में उन्होंने खुद को नई तरह से आज़ाद किया है। प्रणामवाले हुकुम है उनको. वे अपने किरदार में पूरी तरह से घुल-मिल जाते हैं. और हर दृश्य में अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं। दर्शक उन्हें आगे भी देखना चाहेंगे. जावेद जाफरी, जिनकी कॉमिक टाइमिंग और गहरी संवेदनशीलता का दर्शक हमेशा कायल रहा है, इस बार अपनी गंभीर भूमिका में अलग ही चमकते हैं। अवंतिका दासानी, विवान शाह (नसीर उद्दीन शाह -रत्ना पाठक के सुपुत्र) में काफ़ी संभावनायें हैं। कुल मिलाकर “इन गलियों में” सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एक अनुभव है—एक ऐसी यात्रा, जो हमारे भीतर कहीं गहरे तक उतर जाती है। हल्के हल्के गुदगुदाते हुए बड़ी बात कर गई है सिनेमा..
मोहब्बत की फुहार है अविनाश दास की फ़िल्म
शेषनाथ पाण्डेय लिखते हैं ; हमने फिल्म देख ली है। देश में नमाज और होली के रंगों की आड़ में एक नफरती नैरेटिव तैयार किया जा रहा है, उसमें यह फिल्म प्यार की फुहार की तरह आई है। एक सहज और प्यारी सी कहानी, जो हमारे समय की जरूरत है। नफरत से जख्मी हमारा समय ‘इन गलियों में’ जाकर मरहम की तलाश कर सकता है। आपके आस-पास के सिनेमाघर में फिल्म लगी है। देख आइए और इन गलियों में भारत की खोज करिए। लेखक मित्र पुनर्वसु का बड़े पर्दे पर पहला कदम है। उसका स्वागत किया जाना चाहिए। फिल्म के साथ कई और मित्र जुड़े हैं, सबको दुआएं और शुभकामनाएं! दुष्यंत का पोस्ट है; अविनाश दास को दिमाग का धुंआ निकालने वाली बहसों, दिल चीरने वाले झगड़ों, दुर्दम्य असहमतियों, जानलेवा नाराजगियों के बावजूद प्यार करना नहीं छोड़ सकते। उनकी पक्षधरता, उनका काम सदा नई लकीर, बड़ी लकीर खींचते हैं, अंधेरे में लालटेन बन जाते हैं। हिंदी सिनेमा के समकालीन कुहासे में वे एक सुंदर आश्वस्ति हैं। उनकी ताज़ा फिल्म ‘इन गलियों में’ अपने समय में ज़रूरी, साहसी हस्तक्षेप है। विडंबना है कि बहुत कम सिनेमाघरों में रिलीज हुई है, अपने आसपास ढूंढिए, देखिए, दिखाइए। जीवन की तरह खुरदुरे कवि – फिल्मकार! दूर- दूर रहिए, बुलंद रहिए। आपकी आवाज़ और ऊंची हो! और ज्यादा ताकतवर हो! आपके सपनों की दुनिया यूं ही उत्तरोत्तर सच होती जाए! उस सच का उजाला चहुं ओर चमके, महके! आपके सपनों की दुनिया हमारे साझे सपनों की दुनिया है।
किसी सपनीली कविता की तरह परदे पर साकार कहानी
यश मालवीय बताते हैं; कहानी हो गए भाई वसु मालवीय सिनेमा के परदे पर जीवंत दिखेंगे। उनके बेटे पुनर्वसु ने अपने पटकथा लेखन, गीत और संवाद में उन्हें फिर से रच और गढ़ दिया है। इन गलियों में ज़रूर आएं, यहां आपको ज़िंदगी के मेले मिलेंगे ओर इस बात पर पक्का यक़ीन होगा कि रचनाकार हर हाल में जीवनधर्मी होता है, उसकी मृत्यु होती ही नहीं, वो मरणधर्मा हो ही नहीं सकता। वसु के लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह, सूखी नहीं है नदी की पांच कहानियों, आती पाती, जो कभी वागर्थ में छपी थी )ई परेम का होता है रे ( जो संडे मेल में पहाड़ी मिर्ची का प्यार, नाम से छपी थी) लोकतंत्र लागू है, (जो हंस में छपी थी), मुल्क की मौत और कबिरा खड़ा बजार में ,इन्हीं कहानियों पर आधारित है यह फ़िल्म। प्रख्यात निर्देशक अविनाश दास ने किसी सपनीली कविता की तरह इसे परदे पर साकार किया है। इससे पहले हम अनारकली ऑफ आरा में उनका महीन काम देख चुके हैं। इस फ़िल्म में भी उन्होंने अपना सर्वोत्तम दिया है। एक ज़रूरी समय सन्दर्भ और प्रासंगिक फ़िल्म के रूप में द हिन्दू आदि में इसके रिव्यू आ रहे हैं। बाकी हम कहानी खोलते नहीं हैं, आप ख़ुद महसूस करेंगे यह बात ।
इस मौके पर भाई भाई ज़हीर कुरेशी की ग़ज़ल का एक मतला और एक शेर याद आ रहा है/
कमीज़ उनकी है लेकिन बदन हमारा है
ये रूप रंग, ये यौवन का धन हमारा है
जो नफ़रतों को बढ़ाते हैं, अपने पास रखें
कहीं भी गाए ये मेंहदी हसन हमारा है।
इलाज इस का मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं है
प्रवीण सिंह चौहान अपनी बात की शुरुआत चरण सिंह बशर के शेर से करते हैं; ये दुनिया नफ़रतों के आख़री स्टेज पे है, इलाज इस का मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं है। लिखते हैं- नेशनल हाइवे पर भटक-भटक कर थक चुके हों तो घूम आइए ‘इन गलियों में’। अगर आप इंसान हैं तो निराश नहीं होंगे। साहित्य प्रेमी हों, संगीतप्रेमी या फिर फ़िल्म प्रेमी हों सबको अपना-अपना प्रेम मिलेगा अविनाश दास की ‘इन गलियों में’। केवल प्रेम कहानी ही नही बल्कि कई कहानियाँ मिलेगी आपको। रही बात सिनेमा की तो बिना सोचे समझे चुप-चाप सिनेमा हाल चले जाइए। आज के दौर में अच्छा सिनेमा विरले ही देखने को मिलता है। वहीँ विभा रानी लिखती हैं कि अविनाश दास ने
क्या उम्दा मानीखेज़ फिल्म बनाई है। अपने चार दिल में से एक में इस फिल्म को रखिए और समय निकालकर देख डालिए। बहुत जरूरी है यह फिल्म। हमारे भीतर कैसे नफरत फैलाई जा रही है, होली, जुमा, नॉन वेज, वेज आदि के माध्यम से, इसे महसूस करके हम अपने चार में से एक दिल में रखकर अपने को एक सही और जिम्मेदार नागरिक कहने के आत्म बोध से भर सकते हैं।
देखिए न! इस बार भी जुमा और होली साथ पड़ी। इसके पहले भी कभी होली और जुमे की नमाज साथ आई होगी। हमने कभी ध्यान न दिया होगा। लेकिन आज, हमारी आंखों में उंगली डालकर हमें बताया ही नहीं, उकसाया गया। संभाल कर।
दिनों बाद किसी हिंदी फ़िल्म का पोस्टर, गाने और ट्रेलर ने लुभाया
शशि भूषण ने भी शानदार राय व्यक्त की है. कहा है कि बहुत दिनों बाद किसी हिंदी फ़िल्म का पोस्टर, गाने और ट्रेलर लुभा रहे हैं। फ़िल्म के किरदार अपने टोले-मोहल्ले के आम से दिखने वाले युवा-युवतियों के चेहरे हैं जो एहसास करा रहे हैं कि इस कहानी में हमारी ज़िंदगी का भी स्पर्श है। आम लोग ही फिल्मों को अपने दिल में, याद में और ज़िन्दगी में विगत के अनुभव की तरह जगह देते हैं और उन्हीं को फ़िल्म की चमक दमक, महा बिजनेस ने दूर खदेड़ दिया है। आजकल की हिंदी फ़िल्मों के बारे में यह कहना ही पड़ता है कि जो फ़िल्म देखने को तरसते हैं उन्हीं की मौजूदगी पर्दे पर नहीं होती। फिर भी लोग हैं कि बेगानी शादी में दीवाने होकर पहुँचते नाचते हैं।अब वो फ़िल्मकार कहाँ हैं कि जो सोचें कि कितनी मुश्किल से नौजवान अपनी दोस्त के संग फ़िल्म देखने पहुँचेंगे और फ़िल्म देखकर अपने रिश्ते को जन्म जन्मांतर का मानने को विवश होंगे। समय समाज से जूझने का हौसला बटोर लेंगे। उल्टे फ़िल्मकार युवा युवतियों को झंडेबाज़ और फ़सादी बनाने पर उतारू हैं। हमारे धन्नासेठ और महान शासक और कथित दिग्गज लोगों के स्वस्थ मनोरंजन को घृणा की राजनीति का उपकरण क्यों बनाए हुए हैं? अविनाश दास का फ़िल्म जगत में आना एक उम्मीद की तरह है कि वो अपने निजी संघर्षों, अभावों, डाली जाने वाली रुकावटों को हर हाल में पारकर लोगों के लिए सिनेमा बनाएँगे जो उनकी स्मृति में बसने लायक होगा।
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