राकेश कायस्थ
राहुल गाँधी अपनी जनसभाओं में अक्सर ये सवाल पूछते दिखाई देते हैं- “निर्णय लेने वाली ताकतवर नौकरशाही में कितने दलित और ओबीसी हैं?“अभूतपूर्व जीत वाले 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान लालू यादव रैलियों में एक सवाल बार-बार पूछते नज़र आ रहे थे “पटना में महाबीर मंदिर के बाहर बइठ के जो आदमी भीख माँग रहा है, उ कोन जात है? खाली जाति जनगणना करवाके हमको बता दीजिये।“इन दो सवालों के अलावा एक तीसरा सवाल भी है। रामनवमी और होली पर डीजे के साथ मस्जिद के बाहर नाचने वाला, हथियार भांजने वाला, मुसलमानों को ललकारने वाला कौन है?
क्या बहुजन राजनीति कर रहे हैं राहुल गाँधी और अखिलेश यादव
सवाल बेहद संवेदनशील है इसलिए बहुजन राजनीति करने वाले राहुल गाँधी या अखिलेश यादव सरीखे नेता सीधे नहीं पूछ रहे हैं लेकिन इसका जवाब वामन मेश्राम जैसे बहुजन नेता बार-बार देते आये हैं। मेश्राम अक्सर कहते हैं “सांप्रादायिकता बहुजनों की समस्या नहीं है। यह मुसलमानों के खिलाफ बहुजनों का इस्तेमाल किये जाने की समस्या है।“ जिनका जन्म मेरी तरह गोबर पट्टी में हुआ है और जो लोग 40 पार कर चुके हैं वो इस बात को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ में पाएंगे। हर शहर और कस्बे की सांप्रादायिक दंगों से जुड़ी अपनी दंतकथाएं होती थीं। याद कीजिये इन कथाओं के नायक कौन लोग हुआ करते थे? आपको मिश्राजी, गुप्ताजी या श्रीवास्तव जी जैसा एक भी नाम भूले से नहीं मिलेगा। आपको “पूरा मोहल्ला जल गया होता अगर चमरटोली और दुसाध टोली से पांच सौ लोग लाठियां लेकर ना आये होते“ जैसी कहानियाँ ही सुनने को मिलेंगी।
कारसेवक और गुजरात दंगों के ‘नायको’ कौन
अयोध्या के कारसेवकों और 2002 के गुजरात दंगों के ‘नायकों’ को देखिये आपको लगभग शत-प्रतिशत लोग उन्हीं जातियों के मिलेंगे जिनका उल्लेख वामन मेश्राम जैसे लोग करते आये हैं। आजादी के बाद नेहरू के लिए दुनिया कई दूसरे मुल्कों जैसी तानाशाही स्थापित करने का मुफीद रास्ता ये था कि वो पाकिस्तान की तरह भारत में बहुसंख्यकवाद को हवा देते और बिना किसी चुनाव के हमेशा के लिए सत्ता पर कब्जा कर लेते। लेकिन गाँधी के वारिस नेहरू ने ऐसा करने के बदले एक मुश्किल रास्ता चुना। कांग्रेस के शासन के दौरान आरक्षण की धीमी प्रक्रिया से पढ़े-लिखे दलितों का एक मध्यमवर्ग बना। राममनोहर लोहिया जैसे नेताओं ने पचास और साठ के दशक में जो कुछ किया उसका नतीजा ये हुआ कि पिछड़ी जातियों में देश और दुनिया को समझने वाला एक बड़ा तबका पनपा।
तमाम कोशिशों के बावजूद तालिबान में बदलना मुश्किल
इन सबका नतीजा ये हुआ कि आरएसएस की पुरजोर कोशिशों के बावजूद भारत के हिंदू तालिबान में बदलने की प्रक्रिया धीमी पड़ गई। हिंदी पट्टी में मुलायम और लालू जैसे नेताओं का उदय भी भारत के तालिबानीकरण के रूकने का एक बहुत बड़ा कारण साबित हुआ। इसके बावजूद बहुजनों और खासकर ओबीसी को अपने पक्ष में गोलबंद करने के खेल में गोलवलकर के चेले कांग्रेसियों और समाजवादियों से मीलों आगे हैं। कोई मुकाबला ही नहीं है। मोहन भागवत राहुल गाँधी या अखिलेश पर बड़ी आसानी से फिल्मी डायलॉग ठोक सकते हैं “बच्चे तुम जिस स्कूल के छात्र हो, हम उसके हेडमास्टर हैं।“ राहुल गाँधी ओबीसी और दलित जातियों के लोगों में यूनिवर्सिटी प्रोफेसर और भारत सरकार में सचिव बनने का सपना जगाना चाहते हैं। उन्हें इस बात का यकीन दिलाना चाहते हैं कि आनेवाले वक्त में शिक्षा बेहतर होगी, नई नौकरियां आएंगी और उनका भविष्य उज्जवल होगा।
मस्जिद पर झंडा फहराना कोई स्वांत: सुखाय काम है
लेकिन बीजेपी-आरएसएस के पास बहुजन जातियों के लिए ऑलरेडी नौकरियां हैं। क्या आपको लगता है कि मस्जिद पर झंडा फहराना कोई स्वांत: सुखाय काम है और ये बिना किसी इको-सिस्टम के हो रहा है? अक्षित और बेरोजगार से अब ‘आकांक्षी युवा’ बन चुके एक आम ओबीसी के पास अपना करियर रोडमैप है। उसका सपना एक छोटे ठेकेदार से कॉरपोरेटर बनने तक कुछ भी हो सकता है। उसके सामने अनगिनत रोल मॉडल हैं, जो कमल छाप वाला झंडा पकड़कर माल काट रहे हैं। राहुल गाँधी के पास बहुजन भारत के लिए एक सपना है। उनके व्यक्तित्व में ऐसा करिश्मा है जो भारत के किसी भी हिस्से में बड़ी भीड़ बटोर सकता है लेकिन संगठन क्षमता शून्य है। अखिलेश यादव राजनीतिक रूप से तीक्ष्ण बुद्धि होने के साथ चुनावी राजनीति में निपुण और संगठन पर नियंत्रण के मामले में भी दक्ष हैं। लेकिन आरएसएस की महामशीन के आगे उनकी ताकत भी सीमित नज़र आती है।
आरएसएस रोकना चाहता है बहुजन चेतना का विस्तार
संघ एक ऐसा संगठन हैं जो हर स्तर पर आ रहे राजनीतिक-सामाजिक बदलावों पर बेहद पैनी नज़र रखता है। 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद संघ के शीर्ष नेतृत्व में आई बेचैनी इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। हिंदू एकता को लेकर मोहन भागवत ने थोक भाव में इतने बयान पहले कब दिये थे? भागवत का एक बयान खासा दिलचस्प है। सरसंघचालक कहते हैं “हिंदू एकता के लिए जो संभव हो, वो करो। अगर दूसरी जाति में विवाह करना पड़े तो वो भी करो।“ इसमें “करना पड़े तो करो” वाक्य सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। बीजेपी-आरएसएस बहुजन चेतना के विस्तार को रोकने के लिए हर स्तर पर रणनीतिक तरीके से काम कर रहा है। पहला स्तर अंबेडकर और कर्पूरी ठाकुर सरीखे बहुजन नायकों को हड़पने और उन्हें संघ का वैचारिक साझीदार साबित करने का है।
भारत आनेवाले दिनों में क्या हिंदू तालिबान बनेगा
दूसरा स्तर मायावती जैसे दलित नेताओं को साम-दाम दंड-भेद से निष्प्रभावी बना देने का है। छोटे स्तर पर भी कई चीज़ें हो रही हैं। इनमें बहुजनों पर प्रभाव रखने वाले इंफ्लुएंसर्स को सीधे खरीद लेना या सामने बोटी डालकर उन्हें चुप करा देने जैसे तरीके शामिल हैं। इसके बावजूद वृहत भारतीय समाज के भीतर एक तरह की गहरी बेचैनी है। जातियों से परे इस देश के पढ़े-लिखे तबके के एक बड़े हिस्से को समझ में आ रहा है कि बीजेपी-आरएसएस भारत को उस रास्ते पर बहुत तेजी से ले जा रहे हैं, जहां से वापसी लगभग नामुमकिन होगी। भारत आनेवाले दिनों में हिंदू तालिबान बनेगा या फिर वैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर सही अर्थों में `विश्वगुरू’ बनने के अपने सपने को जीवित रखेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि राहुल गाँधी, अखिलेश या तेजस्वी यादव सरीखे नेता इस बड़ी और निर्णायक लड़ाई को किस तरह लड़ पाते हैं। (FB से साभार)
फोटो प्रयागराज के ग़ाज़ी मियाँ दरगाह का रामनवमीं के दिन का है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। रामभक्त रंगबाज़ उनकी चर्चित पुस्तक है।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।