त्रिभुवन
यह ऐसा लाजवाब कालखंड है। यह ऐसा लाजवाब दौर है जिसने नाना प्रकार के आवरणों को पहनकर समाज को गुमराह करने वाले लोगों के चेहरों से उतार कर उन्हें नग्न रूप से सामने ला दिया है। आप कितने सौम्य, शालीन और बनावटी सुशिक्षित हैं, और आपके संस्कार कैसे हैं, आपने पूरे जीवन में कितना और क्या पढ़ा है, क्या लिखा है, आप वैचारिक असहमति में किसी से कितना अशिष्ट हो सकते हैं, यह सब इस कालखंड ने बता दिया है।
यह कालखंड बता रहा है कि इस देश के बुज़ुर्ग लोग तक मर्यादाएं खो चुके हैं, नई उम्र वालों का तो क्या ही कहा जाए। न भाषा का संयम रहा है और न ही सौम्य शब्दों में प्रतिवाद की क्षमता। वे बुजुर्ग जिनके लिए यह माना जाता था कि उनके बिना कोई सभा हो रही है तो वह सभा ही नहीं है; क्योंकि संयम, सभ्यता, शालीनता और बौद्धिक विवेक और चिंतन क्षमता को हमेशा से बुजुर्गों की ही ज्ञान-निधि समझा जाता था। इस काल खंड ने इन्सान के भीतर छुपी असभ्यता, अशिष्टता और विभिन्न तरह की घृणाओं को बाहर ला दिया है।
इस दौर ने हमारे नैतिक और बौद्धिक परिदृश्य को बेबाकी से उजागर कर दिया है। यह समय कई मुखौटों को उतारने वाला साबित हुआ है। लोगों का असली स्वभाव, उनकी सहिष्णुता की सीमा, उनकी वैचारिक दृढ़ता और उनके भीतर जमा आक्रोश—सब खुलकर सामने आ गया है।
यह दौर हमें यह भी दिखा रहा है कि जो लोग कभी संयम, मर्यादा और संस्कार के प्रतीक माने जाते थे, वे भी अब कटुता, कट्टरता, प्रतिगामिता और असहनशीलता के शिकार हो चुके हैं। माहौल ऐसा बन गया है जहाँ असहमति तर्क-वितर्क से नहीं, बल्कि कटुता और अपशब्दों से प्रकट की जा रही है। संवाद के पुराने शिष्ट तरीके लुप्तप्राय हैं और उनकी जगह आक्रामकता, त्वरित प्रतिक्रिया और धैर्यहीनता ने ले ली है।
हम जिस रमता जोगी, बहता पानी वाली महान् संस्कृति का अवगाहन करते थे, उसमें योगी अब सबसे बड़े भोगी और भोगी सबसे बड़े कामातुरों के रूप में सामने आ रहे हें। अब किसी को कुछ कहना भी अपराध का भागी बनना है। ऐसा लग रहा है कि तुलसीदास इस कालखंड की रामचरित मानस का नया उत्तरकांड रच रहे हैं। शायद यह एक शुद्धिकरण की प्रक्रिया है, जिसमें समाज अपने भीतर की सारी असभ्यता को बाहर निकाल रहा है, ताकि एक नया, अधिक परिष्कृत और परिपक्व समय जन्म ले सके। हर उथल-पुथल के बाद स्थिरता आती है और हर अशांति के बाद नया संतुलन बनता है।
यह समय हमें यह भी सिखा रहा है कि किसे सुनना चाहिए और किसे अनदेखा करना चाहिए, कौन असल में विचारवान है और कौन सिर्फ ऊँची आवाज़ में बोलने वाला।
ऐसा लगता है कि इस कालखंड ने इन्सान की डिवॉर्मिंग शुरू कर दी है और वह अपने भीतर की सारी गंदगी का वमन कर रहा है। यह वमन जितना तीव्र होगा, उतनी ही जल्दी स्वच्छता भी आएगी।
और आप जानते हैं कि इस डिवॉर्मिंग का मतलब है अब मस्तिष्क और हृदयों से विषाक्त परजीवी कृमियों का बाहर आना शुरू हो गया है!
और मुझे खुशी है, अच्छा समय आने वाला है। जल्दी ही। क्योंकि वमन शुरू हो चुका है।
(लेखक वरिष्ठ राजनितिक पत्रकार हैं। बरसों भास्कर से सम्बद्ध रहे ।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।