अजय तिवारी
आजकल के हालात में मन करता है कि उर्दू का विरोध करूँ। बस, उन्हीं लोगों का विरोध करके रुक जाता हूँ जो उर्दू को अमीर खुसरो के साथ जोड़ते हैं। यह बात अपनी पुस्तक ‘संगीत कविता हिंदी और मुग़ल बादशाह’ में दिखा चुका हूँ कि उर्दू का जन्म औरंगजेब के निधन के दस साल बाद मुहम्मद शाह रँगीले के समय हुआ। खुसरो को उर्दू का जनक बताने के पीछे वही साम्प्रदायिक भावना रहती है जो उर्दू पढ़कर मुल्ला-कठमुल्ला बनने की बकवास के पीछे होती है। खुसरो देशभाषा के प्रारंभिक कवि हैं, खड़ी बोली के पहले कवि। अवधी और उत्तरप्रदेश की अन्य बोलियाँ के अद्भुत जानकार। फ़ारसी में जो लिखा उसके कारण उनकी ख्याति दुनिया में विद्वान के रूप में हुई। लेकिन भारतीय जनमानस में खुसरो जिस कारण बसे हुए हैं, वह हिंदी में उनका लेखन है और उसपर लोकसंस्कृति की अमिट छाप है। खुसरो उदाहरण हैं कि हिंदी के निर्माण और विकास में मुसलमानों का कितना योगदान है। सच पूछिए तो सभी आधुनिक भाषाओं के विकास में मुसलमानों का उसी प्रकार योगदान है जिस प्रकार हिंदुओं का है। बंगला में टैगोर हैं तो क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम भी हैं और माइकेल मधुसूदन दत्त भी।
यह बात हिंदुस्तान के साम्प्रदायिक नेताओं को कब समझ में आएगी कि किसी भाषा का धर्म से सम्बंध नहीं होता और किसी धर्म से भाषा का सम्बंध नहीं होता। भाषा समाज के व्यवहार की वस्तु है और धर्म भी समाज मे जीवित रहता है इसलिए उसे अपने समाज की भाषा अपनानी पड़ती है। जब भाषा और धर्म का रिश्ता अविच्छेद्य हो जाता है तो एक के डूबने पर दूसरा भी डूब जाता है। पालि भाषा का सम्बंध बौद्ध धर्म से जुड़ा। बौद्ध धर्म के साथ पालि का भी लोप हो गया। ईसाई धर्म की भाषा लैटिन है लेकिन यूरोप में अपने प्रसार के साथ ईसाइयत ने धर्मग्रंथ लैटिन में रहने पर भी विभिन्न समाजों की भाषा में उपदेश दिया। भारत के आदिवासियों में ईसाई मिशनरियाँ अपना प्रचार लैटिन या अंग्रेजी में नहीं करतीं।
भारत में भी तथाकथित हिन्दू धर्म की भाषा संस्कृत है। हमारे जिन ब्राह्मणों ने ज्ञान की रक्षा और प्रसार का दायित्व लिया था, उन्होंने जिस ज्ञान को संस्कृत में बाँधकर रखा, वह ज्ञान लुप्त हो गया। अब कहते रहिए कि यूरोप वालों ने हमारे प्राचीन ग्रन्थों से जानकारी लेकर आधुनिक अविष्कार किये! अगर यह ज्ञान लोगों के बीच फैला होता तो यह नौबत क्यों आती? संस्कृत व्याकरण के निर्माता महान पाणिनि ने हमारे सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद की भाषा को प्राकृत बताया है और उसे पहले से आती हुई बोलचाल की भाषाओं का विकास कहा है। उस प्राकृत का व्यवस्थित और परिष्कृत रूप संस्कृत है। इसीलिए निराला जी ने अपनी कविता में लिखा था कि ‘वेदों से सँवर ली/ भाषा संस्कृत हुई।’
लेकिन न ऋग्वेद किसी धर्म का ग्रन्थ है, न संस्कृत किसी धर्म की भाषा है। ऋग्वेद में महान कविता है, इतिहास है, दर्शन है, कौशल और विशेषज्ञता का ज्ञान है। उसके ज़रिए हम समाज के विकास की जानकारी पाते हैं।
यही बात उर्दू के बारे में है। बेशक़, उर्दू के जनक चाहे जितने क्षुद्र उद्देश्य से हिंदी के व्याकरण में फ़ारसी के लफ़्ज़ डालकर एक भाषा गढ़ रहे थे लेकिन उसका सम्बंध तब भी इस्लाम से नहीं था। उसमें पतनशील मुग़ल दरबार की सांस्कृतिक छवि देखी जा सकती है लेकिन सांप्रदायिकता और ‘कठमुल्लापन’ नहीं। इसका प्रमाण यही है कि:
1.
अकबर से औरंगजेब तक सभी मुग़ल बादशाहों ने हिंदी में (ब्रजभाषा में) कविताएँ लिखी हैं;
2.
जिस मुहम्मद शाह रँगीले के समय उसीके दरबार में उर्दू गढ़ी जा रही थी, खुद उसने हिंदी में कविताएँ लिखी हैं। रँगीले की हिंदी में जितना असर फ़ारसी का है, उससे ज़्यादा पंजाबी का है;
3.
जब चाटुकार दरबारी इस नयी “उर्दू” में लिखने का अभ्यास कर रहे थे, तब इंशा अल्लाह खाँ ने ‘रानी केतकी की कहानी’ नामसे “वह कहानी” लिखी “जिसमें हिंदी छुट, और किसी बोली का मेल है न पुट”!
लेकिन दिल्ली और आगरे के दरबार हिंदीभाषी प्रदेश में थे। वहाँ से यह नयी उर्दू लखनऊ के दरबार में पहुँची। ऐसा कभी नहीं होता कि समाज के बोलचाल की भाषा से दरबार अछूते रहें और दरबार की संस्कृति से समाज अछूता रहे। हिंदी समाज से दरबार में पहुँची थी, रीतिवादी कविता की तरह उर्दू भी दरबार से समाज में पहुँची। यह आदान प्रदान एक समाज के भीतर चलता है जिसे कोई रोक नहीं सकता।
लेकिन एक बार समाज के व्यवहार में, आ जाने पर भाषा का असर लोगों की बोलचाल पर पड़ता है और लोगों की भाषा असर शिक्षित लोगों की भाषा पर पड़ता है। आज हम जो हिंदी बोलते हैं, उसमें अनगिनत उर्दू शब्द घुलेमिले हैं जिन्हें बाहर निकालने की कल्पना पागलों के सिवा कोई नहीं कर सकता। जैसे हिंदी समाज मे जन्म लेने के कारण उर्दू का व्याकरण वही है जो हिंदी का है, वैसे ही एक ही समाज में बोली जाने के कारण हिंदी और उर्दू को अलग रखना असम्भव रहा है।
सच यह है कि उर्दू के घुलने मिलने से हिंदी में केवल समृद्धि नहीं आयी, उसमें लचीलापन भी आया। हिंदी-उर्दू के मिलेजुले स्वरूप पर अलग से विचार करना चाहिए। बहरहाल, जिस समाज में हिंदी और उर्दू बोली जाती हैं, वह समाज गंगा-जमुनी संस्कृति का उदाहरण कहा जाता है। इसे नष्ट करने वाले अज्ञान पर आधारित यह बकवास करते हैं कि उर्दू पढ़कर बच्चे “कठमुल्ला” बनेंगे! क्या संस्कृत पढ़कर बच्चे पोंगापंथी बनेंगे? इसी से जड़ता और कुतर्क को समझ सकते हैं।
मैं अपनी भाषा के लिए प्राण दे सकता हूँ और मेरी भाषा हिंदी उस समाज की भाषा है जिसे गंगा-जमुनी होने पर गर्व है। अधिक पढ़े-लिखे विद्वानों की तरह न संस्कृत गर्भित हिंदी मेरी ज़बान है, न फ़ारसी बोझिल उर्दू। मेरी भाषा में मेरे पुरखों की आत्मा बसी है, मेरे गाँव की छुटी हुई स्मृतियाँ बसी हैं, मेरे आगे बढ़ने का हौसला बसा है। इस भाषा को कोई मूर्ख या पाखंडी छीनने की कोशिश करेगा तो मैं अंतिम साँस तक लड़ूँगा!!!
(लेखक दिल्ली विश्व् विद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे. साहित्यकार और आलोचक हैं। कई सम्मानों से समादृत, किताबें प्रकाशित।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं। जीटी रोड लाइव का सहमत होना ज़रूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का सम्मान करते हैं।)