प्रियदर्शन
पहलगाम के आतंकी हमले के बाद अचानक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष माने जाने वाले लोगों से उनकी पहचान और राय पूछी जा रही है। बाकायदा ललकारा जा रहा है कि वे बिल से बाहर आएं। हालांकि प्रगतिशीलता के मानकों पर अपने खरा उतरने पर मुझे संदेह भी रहा है लेकिन बहुत सारे लोग मुझे प्रगतिशील मान लेते हैं। तो चलिए बिल से बाहर आ जाता हूं। लेकिन आप कब अपनी संकीर्णता और धर्मांधता के बिल से बाहर आएंगे? पहलगाम में जो जघन्य आतंकी हमला हुआ, उसकी बस सिहरन महसूस की जा सकती है। उसकी वास्तविक तकलीफ़ चीख-चीख कर नहीं बताई जा सकती, उसे अपनी रगों पर अनुभव किया जा सकता है।
हमला भारतीय नागरिकों पर है या हिंदुओं पर
पहलगाम के आतंकी लोगों को मारने से पहले उनके कपड़े उतार कर, उनकी पहचान पूछ कर जो हासिल करना चाहते थे, वह उन्होंने कर लिया है। सारा फोकस अब इस बात पर है कि यह हमला भारतीय नागरिकों पर है या हिंदुओं पर, यह साबित करने पर है कि आतंकवाद का एक मजहब होता है। यह सच है कि जो भी तोड़ने वाली ताकतें होती हैं, जो भी विघटनकारी मंसूबे होते हैं, उनका धर्म होता है, उनकी जाति होती है। वे सबसे पहले जाति और धर्म का फर्क ही खोजते हैं। वे ऐसी कहानियों को आगे बढ़ाते हैं जो समाज को तोड़ने वाली हों। वे राशन भी बांटते हैं तो धर्म पूछ कर, वे गोली भी मारते हैं तो धर्म पूछ कर। पहलगाम के हमले की बहुत सारी कहानियां हैं। एक कहानी अगर धर्म पूछ कर गोली मारने की है तो दूसरी कहानी धर्म या पहचान भूल कर अनजान मेहमानों को बचाने की है- बल्कि ऐसी कई कहानियां हैं और अलग-अलग अवसरों पर पूरे देश में पसरी हैं, लेकिन उन्हें देखने वाला कोई नहीं।
आख़िर 20-25 मिनट तक आतंकी खूनी खेल कैसे खेलते रहे
किसी भी आतंकी घटना का किसी भी सूरत में समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन ऐसी घटनाओं की वजहों को पहचानना ज़रूरी है। यह समझना ज़रूरी है कि हमारे बयानवीर नेता जब ‘कायराना हमले’ का ‘मुंहतोड़ जवाब’ देने की बात कर तोप का मुंह पाकिस्तान की ओर मोड़ देते हैं तो दरअसल वे अपनी ज़िम्मेदारी से भागते हैं, वे इस उलझन भरे सवाल से बचना चाहते हैं कि आख़िर 20-25 मिनट तक आतंकी खूनी खेल खेलते रहे, लेकिन उनसे लोहा ले सकने वाला कोई सुरक्षा-प्रबंध क्यों नहीं था। इसमें शक नहीं कि पाकिस्तान आतंकवाद का निर्यातक रहा है, उसके ख़िलाफ़ लगातार सबूत मिलते रहे हैं, इसको लेकर ठोस कार्रवाई की ज़रूरत भी है,लेकिन पाकिस्तानी करतूतों की आड़ में अपनी नाकामी छुपाना हमारी सरकारों का स्वभाव रहा है। दिल्ली, पटना और रांची में बैठ कर बहादुर बनना आसान है, लेकिन जो पहलगाम में मरते हैं और जो सीमा पर गोली खाते हैं, उनके साथ वास्तव में खड़ा होना मुश्किल। नकली, झाग उगलते गुस्से को स्थगित कर देश और समाज की एकजुटता के बारे में सोचेंगे तो शायद आतंकी और अलगाववादी मंसूबों को ज़्यादा बेहतर ढंग से शिकस्त दे पाएंगे। चूंकि प्रगतिशील मिज़ाज किसी झुंड का नाम नहीं है, इसलिए संभव है मेरी राय से बहुत सारे प्रगतिशील भी असहमत हों, जिसका उन्हें हक़ है। लेकिन ये शोक की घड़ी है- बहुत गहरे शोक की घड़ी- इसे सबको महसूस करना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई मीडिया हाउस में महत्वपूर्ण पदों पर रहे। कुछ किताबें प्रकाशित . सम्प्रति NDTV में संपादक । )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।