दीपंकर भट्टाचार्य
बिहार में चुनावी साल है. एनडीए पिछले दो दशकों से सत्ता में है. मोदी के दिल्ली की सत्ता में आने के बाद से बिहार में “डबल इंजन” सरकार है. हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में हाल की जीत के बाद भाजपा बिहार को एक और महाराष्ट्र बनाने के लिए उत्साहित है. महाराष्ट्र में उसने क्षेत्रीय पार्टियों को तोड़कर—जिसमें उसका पुराना सहयोगी शिवसेना भी शामिल है—उन्हें भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनाने के लिए सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल किया. भाजपा को उम्मीद है कि नीतीश कुमार के साथ उसका तीन दशकों से चला आ रहा गठबंधन, जिसने उसे बिहार में पहले ही मजबूत आधार और पकड़ दिलाई है, अब एक नए चरण का रास्ता खोलेगा. इस चरण में भाजपा अपने सीधे नेतृत्व में सरकार बनाकर बिहार को ‘बुलडोजर राज’ की एक और प्रयोगशाला बना सकती है, जहां सामंती दमन, सांप्रदायिक उन्माद और राज्य दमन की भयावह तिकड़ी अपने चरम पर होगी.
70 प्रतिशत से ज्यादा लोग एनडीए सरकार से पूरी तरह निराश
पहले चुनाव पूर्व सर्वेक्षण ने बिहार में जनता के बदलते मन-मिजाज की ओर इशारा किया है. 50 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने न केवल सरकार के प्रदर्शन पर नाराजगी जताई, बल्कि सरकार बदलने की इच्छा भी जाहिर की. वहीं, 22 प्रतिशत लोग सरकार से नाराज तो हैं, लेकिन बदलाव के लिए अभी तैयार नहीं हैं. दूसरे शब्दों में, 70 प्रतिशत से ज्यादा लोग बिहार की एनडीए सरकार से पूरी तरह निराश हो चुके हैं और उनका इस सरकार से मोहभंग हो गया है. एनडीए सरकार इस जमीनी हकीकत से वाकिफ है. न तो भाजपा और न ही नीतीश कुमार की जदयू जनता के असली मुद्दों का सामना करने के लिए तैयार हैं. भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अपने खतरनाक एजेंडे में जुटी है, जबकि नीतीश कुमार असहमति जताने वालों को दबाने के लिए पुलिस दमन और नौकरशाही की ज़ोर-जबरदस्ती का सहारा ले रहे हैं.
भूल गए नीतीश कुमार -बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग
सुरक्षित आजीविका और बेहतर जीवन स्थितियों के लिए संघर्षरत बिहार की मेहनतकश जनता, जो ‘डबल इंजन’ सरकार के लंबे विश्वासघात का खामियाजा भुगत रही है, अब एनडीए के ‘न्याय के साथ विकास’ और ‘सुशासन’ जैसे खोखले जुमले सुनने को तैयार नहीं है. जनता का गुस्सा अब बदलाव के संकल्प में बदल रहा है. सालों तक नीतीश कुमार ने बिहार के लिए विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग उठाई, जिससे बिहार को केंद्र से अधिक वित्तीय हिस्सेदारी मिल सकती थी. बिहार के ऐतिहासिक पिछड़ेपन और झारखंड के गठन से हुए खनिज संसाधनों व उद्योगों के नुकसान को देखते हुए यह एक पूरी तरह जायज मांग थी. लेकिन नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने और बिहार में ‘डबल इंजन’ सरकार बनने के बाद, नीतीश कुमार ने इस मांग को छोड़कर ‘विशेष पैकेज’ की बात शुरू कर दी. यह विशेष पैकेज अब बिहार के लिए एक विशेष धोखा साबित हो रहा है. बिहार में व्यापक और गहरी गरीबी की सच्चाई हाल ही में बिहार सरकार द्वारा किए गए सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण में फिर उजागर हुई है. सर्वेक्षण के मुताबिक, बिहार में 34 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं, जिनकी मासिक आय 6,000 रुपये से भी कम है. वहीं, करीब 30 प्रतिशत परिवारों की मासिक आय 10,000 रुपये से कम पाई गई.
सस्टेनेबल डेवलपमेंट में सभी राज्यों में सबसे निचले पायदान पर बिहार
सर्वेक्षण के निष्कर्ष स्थायी गरीबी की तस्वीर पेश करते हैं, जिसका मतलब यह भी है कि राज्य में भारी कर्ज़दारी फैली हुई होगी—एक ऐसा संकट जिस पर अब तक बिहार से जुड़े आर्थिक अध्ययनों में पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है. अगर बिहार के प्रदर्शन को सतत विकास लक्ष्यों 2030 (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) के संदर्भ में मापा जाए, तो यह भारत के सभी राज्यों में सबसे निचले पायदान पर है. पांच मुख्य विकास लक्ष्य— गरीबी खत्म करना (एसडीजी 1), भूखमरी मिटाना (एसडीजी 2), अच्छे स्वास्थ्य और कल्याण (एसडीजी 3), गुणवत्तापूर्ण शिक्षा (एसडीजी 4), और सम्मानजनक रोजगार व आर्थिक वृद्धि (एसडीजी 8)—के मामले में बिहार का स्कोर भारत में सबसे कम है। 2030 तक पूरे किए जाने वाले न्यूनतम लक्ष्यों का बिहार सिर्फ 43.2% ही हासिल कर पाया है. अगर कोई वास्तविक और प्रभावी पैकेज बनाना है, तो उसे बिहार की गहरी जड़ें जमा चुकी गरीबी और बेरोजगारी को दूर करने पर केंद्रित होना होगा और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, जीविका योग्य मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे मूलभूत विकास लक्ष्यों को पूरी तरह से हासिल करने पर ध्यान देना होगा—ना कि सिर्फ एयरपोर्ट और एक्सप्रेसवे दिखाकर विकास का भ्रम पैदा करना.
धूर्त, विभाजनकारी और छलपूर्ण राजनीति को बिहार को नाकाम करना होगा
बिहार में चुनावी मौसम आते ही जातीय रैलियों का दौर शुरू हो जाता है. भाजपा हमेशा की तरह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मजबूत करने के लिए जातिगत सामाजिक इंजीनियरिंग का इस्तेमाल करती है, ताकि लोगों को अपने चुनावी गणित के अनुसार बांटकर अपने पक्ष में खड़ा किया जा सके. ‘डबल इंजन’ सरकार जातीय पहचान के साथ धूर्तता भरा खेल खेल रही है—कभी लोगों को एससी/एसटी/ईबीसी श्रेणियों में इधर-उधर करके चुनावी फायदा उठाने की कोशिश करती है, और इस दौरान शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के संवैधानिक अधिकार को कमजोर और सीमित कर रही है. सामाजिक इंजीनियरिंग के नाम पर हो रही इस धूर्त, विभाजनकारी और छलपूर्ण राजनीति को बिहार को नाकाम करना होगा और 65 प्रतिशत विस्तारित आरक्षण की मांग पर अडिग रहना होगा, जिससे बहुजन समाज के सभी वर्गों को न्यायसंगत हिस्सेदारी मिले. साथ ही, शिक्षा और नौकरियों के अवसर, मजदूरी में वृद्धि और जीवन स्तर में सुधार जैसी साझा जनहितकारी मांगों को जातिगत सीमाओं से ऊपर उठकर पूरा करना होगा.
भाजपा की मशीनरी अपने पूरे दमखम, पुराने हथकंडों और दिखावटी दंभ के साथ तैयार
बिहार में चुनावी साल अभी शुरू ही हुआ है. भाजपा की विशाल चुनावी मशीनरी अपने पूरे दमखम, पुराने हथकंडों और दिखावटी दंभ के साथ तैयार है और बिहार को डराने-धमकाने की कोशिश कर रही है. लेकिन बिहार और देश ने इसे पहले भी जवाब दिया है—पिछले लोकसभा चुनाव में उसके ‘400 पार’ के गुब्बारे की हवा निकाल दी गई. विधानसभा चुनाव में झारखंड ने फिर दिखा दिया कि अगर जनता अपने मुद्दों पर अडिग रहे, तो भाजपा को रोका जा सकता है. 2025 में बिहार, 2026 में पश्चिम बंगाल और 2027 में उत्तर प्रदेश—ये तीन चुनाव अगले लोकसभा चुनाव से पहले निर्णायक लड़ाइयां होंगी. बिहार में भाजपा/एनडीए की करारी हार न केवल राज्य, बल्कि पूरे देश की जनता का हौसला और ताकत बढ़ाएगी और भारत को फासीवाद के चंगुल से मुक्त करने की लड़ाई को नई ऊर्जा देगी. बदलो बिहार अभियान में जनता की जबरदस्त भागीदारी और हजारों कार्यकर्ताओं की सक्रियता ने उम्मीद और आत्मविश्वास से भरा यह स्पष्ट संदेश दिया है कि बिहार एक बार फिर राष्ट्रीय राजनीति में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के लिए तैयार है.
(लेखक वरिष्ठ सियासतदाँ हैं। सम्प्रति वाम दल भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव ।)
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