प्रेमकुमार मणि
उपराष्ट्रपति श्री धनकड़ के न्यायपालिका पर दिए गए वक्तव्य के बाद इस मामले पर एक सार्वजनिक बहस शुरू हो गई है और कुछ दूसरे गणमान्य लोग इस में कूद पड़े हैं. किसी मुद्दे पर विमर्श अच्छी बात है, लेकिन जिस तरह इसकी आड़ में लोग न्यायपालिका पर हमला कर कर रहे हैं, वह चिन्ता की बात है. सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के लिए एक निदेश जारी किया कि उनके अनुमति हस्ताक्षर के लिए आए मामले में अकारण विलम्ब न हो. यानी या तो जल्दी निष्पादित किए जाएं या फिर संविधान सम्मत तरीके से लौटाए जाएं. यदि तीन महीने से अधिक की देर होगी तो यह माना जाएगा कि वह स्वीकृत है. इसे लेकर उपराष्ट्रपति महोदय ने वक्तव्य दिया कि न्यायपालिका राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दे सकती. उन्होंने यह भी कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल है. इस पर चिन्ता होनी चाहिए. इसका दुरुपयोग संभव है.
न्यायपालिका का निदेश संविधान के अनुकूल है
उपराष्ट्रपति का वक्तव्य बहुआयामी है. उसके कई डाइमेंशन हैं. संविधान के अनुच्छेद 142 की चर्चा कर उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि न्यायपालिका का निदेश संविधान के अनुकूल है. प्रकारांतर से वह न्यायपालिका पर कम, संविधान पर अधिक खफा दिखते हैं. जहाँ तक मेरी समझ है किसी अनुच्छेद की तुलना परमाणु मिसाइल से करना संविधान की अवहेलना है. किसी जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा दिया गया ऐसा वक्तव्य लोकतान्त्रिक रिवाजों के लिए ठीक नहीं है. उपराष्ट्रपति महोदय का साथ देते हुए कुछ अन्य लोगों ने संसद की सर्वोच्चता बनाम न्यायालय का मुद्दा उठा दिया है. इसका मतलब है संसद और न्यायपालिका में एक अधोषित गृहयुद्ध छिड़ गया है. इस मुद्दे पर आए वक्तव्य चाहे जितने मोहक दिखें, निश्चित तौर पर राष्ट्र की अराजक मनोदशा को अभिव्यक्त कर रहे हैं.
उपराष्ट्रपति महोदय ने अनुच्छेद 142 को बताया परमाणु मिसाइल
संसदीय लोकतंत्र में निश्चित ही संसद केंद्रीय संस्था है. लेकिन उसके भी केंद्र में संविधान है. क्योंकि उसकी धुरी पर ही यह संसदीय लोकतंत्र कार्यशील है. उस संविधान में ही अनुच्छेद 142 है, जिसे उपराष्ट्रपति महोदय परमाणु मिसाइल बता रहे हैं. संविधान निर्माताओं ने कुछ सोच समझ कर ही इस अनुच्छेद को रखा होगा. इसलिए कि किसी विशेष स्थिति में संविधान के शब्द और तय कानून न्याय की उच्च मर्यादा और भाव को स्पष्ट नहीं कर पाते और इस विशेष स्थिति में विवेक के आधार पर न्यायालय कुछ निर्देश या निर्णय दे सकता है. यह भारतीय संविधान का ऐसा अनुच्छेद है जो इसे व्यापक बनाता है. उसे उत्तरदायी बनाता है. इसके मूल में विवेक और संवेदना है. इसे परमाणु मिसाइल बताना मेरी समझ से बचकानी बात है.मेरा अनुरोध होगा उपराष्ट्रपति महोदय को अपने वक्तव्य को वापस लेकर संविधान के केंद्रीय भाव का सम्मान करना चाहिए.
न्यायपालिका का गठन लोकतान्त्रिक उपकरणों से नहीं हुआ
यह ठीक है कि हमारी न्यायपालिका का गठन लोकतान्त्रिक उपकरणों से नहीं हुआ है. इसकी संरचना में व्यापक सुधार की जरूरत मैं स्वीकार करता हूँ. पिछले दिनों एक जज महोदय के यहाँ जब अकूत संपत्ति मिली तब उसे पुलिस और आर्थिक अनुसन्धान विभाग को देखना चाहिए था. लेकिन उसे जजों की एक पीठ को सौंपा गया. इस तरह के विशेषाधिकारों की समीक्षा होनी ही चाहिए. समीक्षा अनुच्छेद 142 की भी हो सकती है. कुछ भी समीक्षा से परे क्यों हो. लेकिन मेरी राय में अनुच्छेद 142 का औचित्य है. यह हमारे संविधान का ऐसा हिस्सा है जो इसे महत्वपूर्ण बनाता है.
न्यायपालिका या कार्यपालिका हो मनमानी करने की छूट नहीं
संसद अवश्य महत्वपूर्ण है. क्योंकि लोकतंत्र में वह सबसे बड़ी पंचायत है. जब बहुमत को न्यायनिरपेक्ष मान लेते हैं तब न्यायपालिका और अनुच्छेद 142 की जरूरत नहीं होनी चाहिए. लेकिन क्या हम भारतवासी अपने लोकतंत्र को न्याय और विवेक निरपेक्ष रखना चाहेंगे. क्या बहुमत के ऊपर विवेक, विज्ञान और संवेदना नहीं होना चाहिए? तब तो कोई भीड़, कोई रैली और संसद का बहुमत सब कुछ तय करेगा. इस बहुमत का विवेक और न्याय के साथ द्वंद्वात्मक संबंध होना ही चाहिए. अन्यथा संसद आवारा हो सकती है. संसद हो, या न्यायपालिका या फिर कार्यपालिका किसी को भी मनमानी करने की छूट नहीं होनी चाहिए. यह देखना चाहिए कि दिया गया निर्देश क्या लोकतंत्र की भावना के विपरीत है ? यदि नहीं तो फिर राष्ट्रपति हों या संसद या अन्य कोई भी संस्था निर्देश अनुदेश से डरती क्यों है. लोकतंत्र में संसद नहीं मनुष्य का सत्य सब से ऊपर है. उसकी रक्षा होनी चाहिए.
संघ और भिक्षु धर्म के नियमों की है अवहेलना की
कानून और विवेक के अन्तर्सम्बन्धों पर जब भी बात होती है मुझे बुद्ध के ज़माने की एक कथा याद आती है. इसे मेरे गुरु भिक्षु जगदीश काश्यप ने सुनाई थी. मेरे जानते यह किसी बौद्ध ग्रन्थ का पाठ नहीं है. कथा केलिए किसी ग्रन्थ का हिस्सा होना जरूरी भी नहीं है. कथा में दो बौद्ध भिक्षु धम्म प्रचार से अपने विहार की तरफ लौट रहे हैं. रास्ते में एक बरसाती नदी मिलती है. दिन में खूब बारिश होने से नदी में पानी काफी बढ़ गया था. भिक्षु द्वय किनारे पहुंचे तो देखा एक तरुण स्त्री उहा-पोह में है. उसका गाँव नदी के उस पार था. सुबह जब वह काम पर इधर आई थी तब नदी में पानी कम था और उसे कोई कठिनाई नहीं हुई थी. अब शाम में नदी उफान पर थी. स्त्री के पाँव भारी थे अतएव वह तैर भी नहीं सकती थी. उसके उहा-पोह का कारण यही था. उस ने जब भिक्षुओं को देखा तब थोड़ी आश्वस्त हुई कि इनकी मदद से अब पार चली जाउंगी. उस ने भिक्षुओं से अपनी परेशानी बतलाई और उस पार कर देने का अनुरोध किया. भिक्षुओं में से एक ने कहा- ‘हम भिक्षु हैं, तथागत के शिष्य. हमने स्त्री स्पर्श न करने की शपथ ली हुई है. हमलोग आप की कोई मदद नहीं कर सकते.’ स्त्री का भरोसा टूट गया. अब वह क्या करे. परेशान हो वह विलाप करने लगी. इसे सुन दूसरा भिक्षु द्रवित हुआ. उस ने उसे पार करना स्वीकार लिया. उसका मित्र भिक्षु उसे बार बार बुद्ध की प्रतिज्ञा की याद दिलाता रहा. हम ने स्त्री स्पर्श न करने की शपथ ली है. बुद्ध ने इसकी मनाही की है. मित्र की बात अनसुनी कर दूसरे भिक्षु ने उस स्त्री को कंधे पर बिठाया और नदी के उस पार कर दिया. स्त्री ने आभार जताने के लिए भिक्षु के चरण स्पर्श किए और अपने गाँव चली गई. लेकिन पवित्र भिक्षु अपने मित्र भिक्षु को कोंचने लगा.. उस ने उसकी तीखी आलोचना करते हुए कहा तुम भ्रष्ट हो चुके. तुमने संघ और भिक्षु धर्म के नियमों की अवहेलना की है. तुम अब संघ में रहने लायक नहीं हो. साथी भिक्षु ने इतना भर कहा- उस स्त्री को वहां अकेले छोड़ना मुझे सही नहीं लगा. उसकी पीड़ा मुझ से देखी नहीं गई. अब जो दंड होगा मैं झेल लूँगा.
नियमों का पालन करने वाले को दंड और तोड़ने वाले कुछ नहीं
पवित्र भिक्षु जब विहार लौटा तब सीधे तथागत बुद्ध के सामने सारी बातों को रखा. बुद्ध ने चुप चाप सुन लिया. दूसरे रोज प्रातः फिर सभी भिक्षु अपनी अपनी दिशा में जाने के लिए तैयार थे. जाने के पूर्व बुद्ध उन्हें सम्बोधित करते थे. सम्बोधन में भी जब बुद्ध ने नियम भंग करने वाले भिक्षु की चर्चा नहीं की तब पवित्र भिक्षु बिफर गया. कहा, – भंते ! आप ही ने नियम बनाए हैं कि किसी स्त्री का स्पर्श नहीं करना है. हम सब ने इसकी शपथ ली है. मैंने उस नियम का पालन किया और उस भिक्षु ने उसे तोडा. उसे आप ने दण्डित नहीं किया बल्कि उसकी निन्दा भी नहीं की. ऐसे में संघ कैसे चलेगा ? बुद्ध ने पवित्र भिक्षु को आदेश जैसा दिया,- तुम संघ छोड़ दो. पवित्र भिक्षु परेशान हो बोला,- मैं ही संघ छोड़ दूँ. मैंने आपके अनुदेश आपके नियमों का पालन किया और उस भिक्षु ने उसे तोडा. और दंड मैं भोगूं ? हाँ, तुम संघ छोड़ दो. ‘ -बुद्ध ने शांत चित्त भाव से कहा.तमाम भिक्षुओं की परेशानी देख बुद्ध के प्रधान शिष्य आनंद ने जिज्ञासा की, भंते आप इसे स्पष्ट करें. हमलोग आप को नहीं समझ पा रहे हैं. नियमों को तोड़ने वाले पर आप चुप हैं और उसका पालन करने वाले को दंड दे रहे हैं.
हमारे धर्म के मूल में लोक कल्याण है और करुणा हमारी प्रवृति है
बुद्ध ने संयत भाव से स्पष्ट किया – भिक्खुओ, हमारे धर्म के मूल में लोक कल्याण है और करुणा हमारी प्रवृति है. स्त्री-स्पर्श की मनाही इसलिए की गई कि आप को बहुजन कल्याण के काम करने हैं. आप सब पूर्णकालिक धम्म प्रचारक हो. किसी एक स्त्री के संग जुड़ जाने पर लोक कल्याण प्रभावित होगा. इसलिए स्त्री से दूर रहने की मनाही है. लेकिन इन दोनों भिक्खुओं के मामले को देखो. परेशान स्त्री की पीड़ा से द्रवित हो एक भिक्खु उसे कंधे पर बैठा लेता है और उस पार कर देता है. निश्चित ही उस ने धर्म के नियमों की अवहेलना की या उसे तोड़ दिया. लेकिन उसने उसके मूलभाव लोक कल्याण की रक्षा कर ली. स्त्री को उस पार कर के वह उस से मुक्त हो गया. उस ने धर्म के मूल भाव की रक्षा कर ली. लेकिन इस पवित्र भिक्षु ने संघ के नियमों की तो रक्षा कर ली, लेकिन धम्म के मूलभाव की अवहेलना की. इतना ही नहीं, उसके तन ने भले स्त्री स्पर्श नहीं किया उसके मन में वह स्त्री रात भर बैठी रही बल्कि अब तक बैठी है. जब कि पहला भिक्खु कुछ ही समय बाद उस से मुक्त हो गया. अब आप लोग ही बताओ कौन है धर्मभ्रष्ट ?
काश ! हमारे जनतंत्र में सार्त्रे और डे गॉल होते!
संघ या संसद की पवित्रता बड़ी चीज है या विवेक और न्यायसँगत लोकतंत्र का मूल भाव. उपराष्ट्रपति जिसे परमाणु मिसाइल बता रहे हैं वह अनुच्छेद हमारे लोकतंत्र को विवेक का एक असीम अंतरिक्ष दे रहा है. संविधान निर्माताओं ने कुछ सोच-समझ कर ही इस अनुच्छेद की व्यवस्था की थी. उपराष्ट्रपति का राग मिलाते हुए जो लोग संसद की गरिमा का रोना रो रहे हैं उन्हें फ्रांसीसी लोकतंत्र की उस घटना का स्मरण करना चाहिए जो फ्रांसीसी संसद और एक दार्शनिक लेखक के बीच 1960 के दशक में कभी घटित हुआ था. पेरिस में युवा आंदोलन के समर्थन में जब ज्यां पॉल सार्त्र उतरे तो उन पर नागरिक कानूनों की धज्जियाँ उड़ाने के आरोप लगे और उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाते हुए गिरफ्तारी की मांग फ़्रांस की संसद में उठे. उन पर संसद की आलोचना का भी इल्जाम था. लेकिन तब फ़्रांस में डे गॉल जैसा प्रबुद्ध राष्ट्रपति था. उस ने संसद सदस्यों को आड़े हाथ लेते हुए कहा- ‘ यू डोंट अरेस्ट वाल्तेयर.’ यह भी कि आप ही नहीं, वह ( सार्त्रे ) भी फ्रांस है. काश ! हमारे जनतंत्र में सार्त्रे और डे गॉल होते!