त्रिभुवन
आजकल हिन्दुत्व का धार्मिक उफान तारी है। हिन्दू धर्म को इक्कीसवीं सदी में समरस बनाने की बातें हो रही हैं। आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत साहब ने पिछले दिनों भाषण दिया कि हिन्दू का कुआं, हिन्दू का मसान और हिन्दू का खानपान एक हो। एक जगह हो। छुआछूत ख़त्म करो। जिस दिन यह बयान छपा, उसके अगले दिन संघ के एक चर्चित नेता और पूर्व विधायक तथा दशकों से संघ की श्रमिक यूनियन के लिए समर्पित स्वनामधन्य ज्ञानदेव आहूजा साहब ने उस मंदिर को गंगाजल से धोया, जिसमें प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली ने पूजा-अर्चना की थी।

वाक्यांश अहंकार और संवेदनहीनता के जीवंत नमूने हैं ज्ञानजी भाई साहब
असहिष्णुता का स्तर यह रहा है कि जूली किसी समय ज्ञानदेव आहूजा की पार्टी से जिला प्रमुख भी रहे हैं। बाकी दलितों में नाराज़गी नहीं हो; इसलिए इस घटना के बाद ज्ञानजी भाई साहब से पार्टी ने जवाब तलब किया; लेकिन ज्ञानजी अपने सच पर अड़े रहे और बोले : ज्ञानदेव को सिखाया ही नहीं गया कि ऐसे मामले में माफ़ी कैसे मांगी जाए। हालांकि शब्द उनके दूसरे थे; लेकिन उनके बयान का अर्थ यही निकल रहा था। आज विधायकों से लेकर न्यायाधीशों तक भाषा का जो स्तर गिरा है, वह इस बात का द्योतक है कि मनों के भीतर कितना मैल जमा हो गया है। “माफ़ी माँगना सीखा ही नहीं!”, “माफ़ी मांगे मेरा जूता!”, “यह सिस्टम गूंगा-बहरा हो गया है!” जैसे वाक्यांश अहंकार और संवेदनहीनता के जीवंत नमूने हैं।

किसी काँग्रेसी ने किया होता तो क्या प्रतिक्रिया होती
अलबत्ता, ज्ञानजी भाई साहब को पार्टी से निलंबित कर दिया गया; लेकिन ज्ञानजी भाई साहब के कृत्य की निंदा संघ प्रमुख या भाजपा प्रमुख ने नहीं की। भाजपा के भीतर जितने भी दलित नेता हैं, उन्होंने भी कोई कमेंट नहीं किया। वे सब चुप रहे। लेकिन प्रश्न है कि टीकाराम जूली भाजपा के जिला प्रमुख होते और उनके मंदिर प्रवेश के बाद मंदिर को धोने का काम किसी काँग्रेसी ने किया होता तो क्या प्रतिक्रियाएं रहतीं? ऐसा नहीं कि कांग्रेस दूध की धुली है। कांग्रेस में भी दलित सम्मान का भाव उचित संवेदना के स्तर पर होता तो प्रदेश कांग्रेस राजस्थान में इसे बहुत बड़ा मुद्दा बनाती। लेकिन उसने उसे निंदा के शब्दों तक छोड़ दिया। इसकी वजह भी सब जानते हैं। यही अगर राहुल गाँधी के साथ हुआ तो काँग्रेस ज़रूर कुछ करती। लेकिन अपने दलित नेता का अपमान भी कोई अपमान है! यही सब किसी कांग्रेसी ने किया होता तो भाजपा इसी मुद्दे को गाँव ढाणी तक ले जाती और काँग्रेस के नेताओं के लिए बड़ी मुसीबत पैदा हो जाती। काँग्रेस ने ऐसा क्यों नहीं किया? यह बड़ा सवाल है। ख़ासकर ऐस समय जब जातिप्रेम के विडियो वायरल हो रहे हैं। काँग्रेस के नेता जगजीवन राम तो नेहरू युग से लेकर इंदिरा युग तक ब्राह्मणों के लिए अपने घर पर अलग रसोई चलवाया करते थे; क्योंकि वे अपने ऐसे मतदाताओं का ख़याल करते थे, जो छुआछूत को मानते थे। उस समय यह दायित्व काँग्रेस के सवर्ण नेताओं का था कि वे ऐसे मतदाताओं को इस तरह की प्रवृत्तियों से रोकते।

इस गंदगी को देश से मिटाने का प्रश्न है
आज प्रश्न किसी दल की आलोचना या निंदा का नहीं है। प्रश्न है, इस गंदगी को देश से मिटाने का। राजनीतिक दल कहीं तो खुले मन से इस तरह की बुराइयों के लिए हाथ मिलाएं। लेकिन जाति गर्व के इस दौर में क्या यह संभव है। अभी मैं भाजपा के अच्छे समझे जाने वाले और मेरे हिसाब से सबसे सजग एक नेताओं में एक नेता विडियो में कह रहे थे कि उन्हें दु:ख होता है कि मेरी जाति के लोगों की कार के पीछे तो ठिकाना लिखा होता है, लेकिन वे रहते शहर के एक कमरे में हैं। इसी तरह दूसरे दल के एक सुशिक्षित नेता कह रहे थे कि मुझे एक नेताजी की लोगों ने बहुत तारीफ़ की, लेकिन मैं जब उनसे अपने जाति के सम्मेलन में मिला तो उनकी ख़ूबियां उजागर हुईं और पता चला कि वे बहुत उच्चाकांक्षी नहीं हैं और पाॅलिटिकली इतने ऐंबिशस नहीं है तो फिर हमने उन्हें ले लिया!
राजनीति में आस डूबने से ही दिल रौशन होता है
अब दलित समुदाय के सुशिक्षित लोगों से मिलो तो उन्हें भी इस पर कुछ ख़ास नाराज़ी नहीं होती और वे भी यह सब मानकर ही चलने लगे हैं कि यह सब तो आम बात है। ऐसा लगता है कि राजनीति में आस डूबने से ही दिल रौशन होता है; क्योंकि दिल के दाग़ जलने से भी कुछ तो प्रकाश होता ही होगा! लेकिन दिल तो रोता ही है। रूह की हक़ीक़त कुछ तो कहती ही है। भले केंद्र में अंबेडकर जी वाला मंत्रिपद भी मिल गया हो। लेकिन रूह का सच तो यही है कि मजलिसों और सार्वजनिक तौर पर राजनीतिक दलों के भीतर दलित मंत्रियों या पदाधिकारियों के चेहरे चाहे कितनी भी तबस्सुम बिखेरें, उनके दिल का तर्जुमाँ तो नहीं है।

यदि मुसलमान क्रूर रहा है तो हिन्दू नीच रहा है….
इन हालात में आज के दिन मुझे अंबेडकर जी की वह बात याद आती है, जो हिन्दुओं को ख़तरनाक़ तरीके से ललकार कर सुधार के लिए पाबंद करने की कोशिश करती है। लेकिन इन्सानियत ही मान ले तो वह धर्म ही काहे का! भले धर्म कोई हो। धर्म का मतलब ही यह है यह है कि वह अतीतकालीन जीवाश्म को आज का सच मानता है और आज के सच के रूप में मौजूद मनुष्य को प्राचीन जीवश्म नियंत्रित करते हैं। ऐसे में अंबेडकर जी का वह संदेश : “हिंदू लोग मुसलमानों की इसलिए आलोचना करते हैं कि उन्होंने तलवार के बल पर अपना धर्म फैलाया। वे ईसाई धर्म का भी इसलिए उपहास करते हैं कि वे धर्म न्यायाधिकरण के आदेश से काम करते हैं। लेकिन अगर सच पूछा जाए तो हमारे सम्मान के लिए कौन बेहतर और अधिक योग्य है? वे मुसलमान और ईसाई जिन्होंने अनिच्छुक व्यक्तियों पर बलपूर्वक वह थोपने का प्रयास किया, जिसे वे उनके उद्धार के लिए आवश्यक मानते थे या वे हिन्दू जो ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलने देते थे और जिन्होंने अपने ही धर्म के अंसख्य लोगों को अंधकार में रखने की कोशिशें करते रहते हैं और जो अपनी बौद्धिक और सामाजिक विरासत को उन लोगों के साथ साझा करने के लिए सहमत नहीं, जो इसे अपने स्वयं के निर्माण का हिस्सा बनाने के लिए तैयार और इच्छुक हैं? मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यदि मुसलमान क्रूर रहा है तो हिन्दू नीच रहा है। और नीचता क्रूरता से भी बदतर और निंदनीय है।”
-डाॅ. भीमराव अंबेडकर, पेज 75, जातिप्रथा उन्मूलन, बाबा साहब डाॅ. भीमराव अंबेडकर : संपूर्ण वाङ्मय, खंड एक, लाहौर जातपांत तोड़क मंडल 1936 के वार्षिक सम्मेलन के लिए तैयार किया गया भाषण
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सम्प्रति दैनिक भास्कर जयपुर से सम्बद्ध । )
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