सुजाता
मनोविज्ञान समझिए…ऑप्टिक्स है महज़? – आइडेंटिटी पॉलिटिक्स का इस्तेमाल करके बेवक़ूफ़ बना लिया? तो क्या ऑप्टिक्स का कोई महत्व नहीं होता? जो मंच पर दिखता है क्या उसका कोई संदेश नहीं होता? फिर तो हमें इस बात पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि किसी आयोजन में पैनल की जगह manel बना है, सब पुरुष ही हैं मंच पर या सिर्फ़ ब्राह्मण हैं, या एक भी अल्पसंख्यक नहीं या कोई हाशिए की अस्मिता नहीं या सभी एक ही विचारधारा के लोग हैं. अगर प्रेस ब्रीफिंग में एक तरफ़ मुस्लिम महिला अफ़सर थी और दूसरी तरफ़ एक हिंदू महिला अफ़सर तो इस ऑप्टिक्स का एक तगड़ा संदेश था जो निश्चित ही सिर्फ़ पाकिस्तान के लिए नहीं था. जिस समय लोग अपने ही देश में मुसलमान पर हमला करने को तैयार थे उस समय यह ऑप्टिक्स शानदार था. बेहद ज़रूरी. यह न होता तो मुझे आपत्ति होती.

ऑपरेशन का सिंदूर नाम क्यों रखा?
पहले बात तो यह कि यह समय नहीं है इस तरह की आपत्तियाँ दर्ज करने का. दूसरी बात यह कि जिस लेवल पर यह सब तय होता है वहाँ आपके विमर्श नहीं चलते. वहाँ अपने नागरिकों को यह महसूस करवाना लक्ष्य होता है कि आपको अनाथ और वल्नरेबल छोड़ नहीं दिया गया है. भले ही यह चूक हुई सुरक्षा व्यवस्था में लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि चुपचाप हमला बर्दाश्त कर लिया जाएगा. उन २६ लोगों में किसी अपने की कल्पना कीजिए समझ आ जाएगा. तीसरी बात, बहुत स्पष्ट रूप से उन स्त्रियों के पतियों को मारा गया जो सिंदूर लगाती थीं. एक तो नवविवाहिता ही थी. मुझे भी अजीब लगा एक पल के लिए कि सुहाग के रंग को हिंसा के रंग से कैसे जोड़ा जा सकता है? लेकिन क्या वाकई जिनके सिंदूर छिन गए हमेशा के लिए उनका दर्द समझना किसी विमर्श से बड़ा है? क्या विमर्श मनुष्यों के लिए नहीं होता? किसी ऐसी सत्ता के लिए होता है जो हमेशा हर पल रूल बुक के हिसाब से सही हो? क्या कोई ऑटोमैटिक फेमिनिस्ट हो सकता है कि इधर उसके साथ हादसा हुआ और उधर उसका मशीनी रिएक्शन आ गया? क्या वे महिलाएँ इस समय सिंदूर की फ़िज़ूल बहस देखकर राहत महसूस करेंगीं? अगर उनसे मतलब नहीं आपको तो क्या आपका फ़ेमिनिज्म इंक्लूसिव है भी?

कई लोग सर्टिफिकेट लेकर घूम रहे हैं कई दिन से
एक वक़्त होता है इमरजेंसी का : तमाम बेवक़ूफ़ियाँ इस समय तमाम लोगों को सूझ रही हैं. कई लोग सर्टिफिकेट लेकर घूम रहे हैं कई दिन से और जिस तिस की पोस्ट पर चिपका आ रहे हैं, देशभक्त/ देश विरोधी. उसके बीच में कई लोग इसकी पोल खुली उसकी पोल खुली कर रहे हैं और अपनी प्रगतिशीलता को दूसरे की कमीज़ से ज़्यादा सफ़ेद बता रहे हैं. ऐसे में क्या ज़रूरी नहीं सोचना कि हमले के वक़्त आप सबसे पहले इस देश के एक नागरिक हैं? किसी को सरकार के साथ खड़ा होना बुरा लग रहा है-ऐसा कभी न हो, लेकिन कल्पना कीजिए दुश्मन फौज की टुकड़ी दिल्ली में या आपके शहर में घुस ही गई तो किसके साथ खड़े होंगे? भारत की सरकार के साथ या पाकिस्तान के साथ? आख़िरी बात ये है कि इंक्लूसिव सोसायटी बनाने की बात सब करते हैं लेकिन सब अपनी विचारधाराओं में एक्सक्लूसिव होते जा रहे हैं. यह अपने ही पाले में गोल करने जैसा है. सब्र से सोचिएगा. सरकार की आलोचना का भी सही ग़लत अवसर होता है. मेरी कर सकते हैं. मुझे भी बिका हुआ, नतमस्तक, पोल खुल गई जैसा कुछ कह सकते हैं. लेकिन मेरे लिए मेरा देश, मेरा समाज, मेरे लोग सबसे पहले हैं. पाकिस्तान या किसी भी देश की कोई मिसाइल मुझपर इस देश का नागरिक होने के नाते गिरेगी. इसलिए मुझे इस देश के साथ खड़े होने के अलावा इस वक़्त कोई कर्तव्य नहीं सूझता. और यूँ तो युद्ध ही एक मर्दाना विमर्श है, औरतें इतिहास लिखतीं तो दुनिया जानती कि शांति कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है. लेकिन हालात यही हैं…जो हैं.
(हिन्दी के पहले सामुदायिक स्त्रीवादी ब्लॉग ‘चोखेर बाली’ से चर्चित सुजाता दिल्ली के एक कालेज में पढ़ाती हैं। कई किताबें प्रकाशित। ‘आलोचना का स्त्रीपक्ष’ के लिए उन्हें 2022 के देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित किया गया है। कविता के लिए भी उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। G.T. Road Live का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।